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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, परिशिष्ट - १, वेदांतदर्शन हेतु (धूम) का सामानाधिकरण्य जिसका रुप हैं, उसे व्याप्ति कहा जाता हैं । अर्थात् पर्वत आदि पक्ष के उपर धूम और वह्नि (साधन और साध्य) का होना - "यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र वह्निः" इत्याकारक जो सामानाधिकरण्य (एकाधिकरणवृत्तित्व) हैं, वही व्याप्ति का स्वरुप हैं । उस व्याप्ति व्यभिचार के अदर्शन के साथ हेतु और साध्य के साहचर्य के दर्शन से ग्रहण किया जाता हैं अर्थात् "महानस" में धूम और वह्नि का साहचर्य देखने से "यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र वह्निः" ऐसी व्याप्ति का ग्रहण होता हैं। शर्त केवल इतनी हैं कि, व्यभिचार का दर्शन नहीं होना चाहिए। (दो पदार्थो को नियम से एक स्थान पे देखना, वही सहचार दर्शन हैं।) वह सहचारदर्शन बहोत बार देखकर हुआ हो या एकबार देखकर हुआ हो, तो भी केवल वह व्यभिचार शून्य हो, तो उससे व्याप्तिग्रहण होता हैं। जिसका सहचारदर्शन हुआ हो उसकी व्याप्ति का ग्रहण होता हैं और जिसके सहचार का दर्शन नहीं हुआ हैं, उसकी व्याप्ति का ग्रहण नही होता हैं, ऐसे प्रकार के अन्वय-व्यतिरेक के अनुरोध से सहचार दर्शन ही व्याप्तिज्ञान में प्रयोजक हैं। परंतु भूयोदर्शन या सकृद्दर्शन व्याप्तिग्रहण में प्रयोजक नहीं हैं। ३६८ ܕ अनुमान में एकविधत्व :- वेदांतसिद्धांत में नैयायिको की तरह अनुमान का त्रिविधत्व स्वीकार नहीं किया हैं, परन्तु एकविधत्व ही स्वीकार किया हैं । तच्चानुमानमन्वयिरुपमेकमेव न तु केवलान्वयी । सर्वस्यापि धर्मस्यास्मन्मते ब्रह्मनिष्ठात्यन्ताभावप्रतियोगित्वेन अत्यंताभावाप्रतियोगिसाध्यकत्वरुप- केवलान्वयित्वस्याऽसिद्धेः । 1 वेदांतमत में यह अनुमान अन्वयिरुप एक ही (प्रकार का ) हैं । परंतु केवलान्वयी नहीं हैं। क्योंकि वेदांतमत में सारे धर्म ब्रह्मनिष्ठ अत्यंताभाव के प्रतियोगि होने से जो अनुमान का साध्य, अत्यंताभाव का अप्रतियोगि हो, ऐसे केवलान्वयी की असिद्धि हैं 1 कहने का आशय यह हैं कि, वेदांतीयो को नैयायिको की मान्यतानुसार का केवलान्वयी लिंग मान्य नहीं हैं। क्योंकि वेदांती अन्वयीरुप एक ही लिंग मानते हैं। क्योंकि, नैयायिको को स्वीकृत केवलान्वयी लिंग का साध्य, अत्यंताभाव का अप्रतियोगी होता हैं । अर्थात् केवलान्वयी लिंग का साध्य कभी भी अत्यंताभाव का प्रतियोगि हो नहीं सकता हैं । (केवलान्वयी लिंग के साध्य का अभाव कभी भी नहीं होता हैं ।) 1 परंतु वेदांतीयों के मत में तो ऐसा कोई साध्य पदार्थ ही संभवित नहीं हैं क्योंकि, “नेह नानास्ति किञ्चन " इस श्रुति से ब्रह्मातिरिक्त समस्त वस्तुओ में ब्रह्मनिष्ठ अत्यंताभाव का प्रतियोगित्व ही रहता हैं । इसलिए अत्यन्ताभावाप्रतियोगिसाध्यक ऐसी केवलान्वयित्व की सिद्धि नहीं हो सकती । इस तरह से केवलान्वयी लिंग का निराकरण किया, अब केवलव्यतिरेकी और अन्वय व्यतिरेकी लिंग का निराकरण करते हुए बताते हैं कि नाप्यनुमानस्य व्यतिरेकरुपत्वम् । साध्याभावेः साधनाऽभावनिरुपित - व्याप्तिज्ञानस्य साधन साध्यानुमितावनुपयोगात् । अत एवाऽनुमानस्य नान्वयव्यतिरेकिरुपत्वं व्यतिरेकव्याप्तिज्ञानस्यानुमित्यहेतुत्वात् । केवल व्यतिरेकी अनुमान भी नहीं हो सकता हैं। क्योंकि साधन द्वारा साध्य को अनुमित करने में साध्य अभाव में साधनाभाव निरुपित व्याप्तिज्ञान का कुछ उपयोग नहीं हैं। इसलिए ही अन्वय-व्यतिरेकी अनुमान भी नहीं हो सकता हैं। क्योंकि व्यतिरेकी व्याप्तिज्ञान अनुमिति के प्रति कारण नहीं हैं । For Personal & Private Use Only Jain Education International. www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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