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षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन
(२) इन्द्रिय अजन्य प्रत्यक्ष । उसमें सुखादि का प्रत्यक्ष इन्द्रिय अजन्य प्रत्यक्ष हैं। सभी इन्द्रियां अपने अपने विषयो के साथ संयुक्त होने पर अपने अपने विषयो का प्रत्यक्ष उत्पन्न करती है, और उसको इद्रियजन्य प्रत्यक्ष कहा जाता है।
विशेष में, ब्रह्म के प्रत्यक्ष में कुछ अन्तर हैं । (८५)अध्यारोपाय वादन्याय द्वारा "तत्' और 'त्वम्' पदार्थो का सम्यक् ज्ञान होने के बाद गुरु साधक को 'अहं ब्रह्मास्मि' इस महावाक्य का उपदेश देते हैं, तो उसके निरंतर चिंतन से साधक के हृदय में "मैं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्यस्वभाव, आनंदमय ब्रह्म हूँ" ऐसे प्रकार की परब्रह्म के आकार की वृत्ति उदित होती हैं। उसमें चैतन्य का प्रतिबिंब रहता हैं। इसलिए वह ब्रह्मगत अज्ञान का नाश कर देता हैं । अज्ञान के नाश के बाद अज्ञान (माया) के कार्यभूत समस्त संचित कर्म और अंतःकरणादि का नाश हो जाता हैं। परचित्तवृत्ति भी अज्ञान का कार्य हैं। इसलिए अज्ञान का नाश होने से वह स्वतःनष्ट हो जाती हैं। अज्ञान का पूर्णतः नाश होने से स्वयं प्रकाश ब्रह्म स्वतः प्रकाशित होने लगता हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय में विस्तृत जानकारी अन्य ग्रंथो से जान लेना।
(२) अनुमान प्रमाण :- अनुमितिकरणमनुमानम् । अनुमितिश्च व्याप्तिज्ञानत्वेन व्याप्तिज्ञानजन्या । व्याप्तिज्ञानानुव्यवसायादेस्तत्त्वेन तज्जन्याभावान्नानुमितित्वम् । (वेदांत परिभाषा-अनुमान परिच्छेदः)
जो अनुमिति प्रमा का करण हो, वह अनुमान हैं, अर्थात् जिस ज्ञान से अनुमिति नाम का यथार्थज्ञान (प्रमा) होता हैं, वह ज्ञान “अनुमान" नाम का द्वितीय प्रमाण हैं। तथा अनुमिति-प्रमा व्याप्तिज्ञानत्वेन व्याप्तिज्ञानजन्य हैं। अर्थात् व्याप्तिज्ञानत्व से युक्त व्याप्तिज्ञान से जो प्रमा होती हैं, वह अनुमितिप्रमा हैं। यानी कि 'धूम वह्निव्याप्य हैं" अर्थात् जहाँ धूम होता हैं, वहाँ वह्नि रहती हैं। यह व्याप्ति का सामान्य उदाहरण हैं। ऐसे व्याप्तिज्ञानत्वेन व्याप्तिज्ञान से जो ज्ञान होता हैं, वह अनुमितिज्ञान हैं। __ यहाँ एक शंका उठती हैं कि, "धूम वह्निव्याप्य हैं" यह व्याप्तिप्रकारक ज्ञान "पर्वत वह्निमान् हैं।'' यह अनुमति प्रति जैसे कारण होता हैं, वैसे ही व्याप्तिज्ञान के अनुव्यवसाय, स्मृति, ध्वंस आदि के प्रति भी कारण हैं। क्योंकि, "मैं वह्निव्याप्यधूमवान् पर्वत को जानता हूँ' यह अनुव्यवसाय ज्ञान हैं। (इन्द्रियों से होनेवाला जो प्रथम ज्ञान हैं, वह "व्यवसाय'' ज्ञान कहा जाता हैं। और बाद में होनेवाला तद्विषयक मानसज्ञान, अनुव्यवसाय ज्ञान कहा जाता हैं।) इस व्याप्तिज्ञान के अनुव्यवसाय में व्यवसाय ज्ञान कारण हैं । (इस अनुव्यवसायज्ञान में व्याप्तिज्ञानजन्यत्व हैं।) इसलिए "व्याप्तिज्ञानत्वेन व्याप्तिज्ञानजन्य ज्ञान को अनुमिति ज्ञान कहा जाता हैं" यह अनुमिति ज्ञान का लक्षण, व्याप्ति ज्ञान के अनुव्यवसायज्ञान में अतिव्याप्त होता हैं।
इस शंका का समाधान देते हुए ग्रंथकार "तत्त्वेन तज्जन्यत्वाभावान्नानुमितित्वम्" इस पद के द्वारा बताते हैं कि- यद्यपि व्याप्ति का अनुव्यवसाय व्याप्तिजन्य होता हैं, फिर भी उस अनुव्यवसाय ज्ञान में जो जन्यत्व हैं, उस जन्यत्व से निरुपित (उस जन्यत्व से ज्ञात होनेवाला) जो व्याप्तिज्ञान में कारणत्व हैं, उस व्याप्तिज्ञान के विषयत्व रुप से (विषयत्वेन रुपेण) होता हैं व्याप्तिज्ञानत्वेन रुपेण होता नहीं हैं। उसी तरह से व्याप्तिज्ञानजन्य स्मृति, शाब्दबोध, उसका ध्वंस आदि में भी व्याप्तिज्ञानजन्यत्व होने पर भी उसमें व्याप्तिज्ञान विषयत्वरुपेण उसका कारण होता हैं। व्याप्तिज्ञानत्वरुपेण नहीं । इसलिए अनुव्यवसायादि में व्याप्तिज्ञानत्वेन व्याप्तिज्ञान का जन्यत्व न होने से वह अनुमितिरुप नहीं हैं। उस कारण से अतिव्याप्ति भी नही हैं।
(८५) "स गुरुः परमकृपया अध्यारोपायवादं' न्यायेनैनमुपदिशति "तस्मै स विद्वानुपसन्नाय'' इत्यादि श्रुतेः (वेदान्तसार)
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