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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग -१, परिशिष्ट-१, वेदांतदर्शन ३६५ भावार्थ :- स्वाकारवृत्ति (विषयाकार वृत्ति) में उपहित (प्रविष्ट हुआ) प्रमात चैतन्य की सत्ता से प्रत्यक्षयोग्य विषय की सत्ता का पृथक् न होना वही विषयगत प्रत्यक्षत्व (प्रत्यक्षव्यवहार) का प्रयोजक हैं। अर्थात् प्रमातृ चैतन्य की सत्ता और विषय की सत्ता एक होने से "यह घट प्रत्यक्ष हैं" यह व्यवहार होने लगता हैं । (वस्तु के साथ चक्षुरिन्द्रियका संयोग होने से (८४)चित्तवृत्ति उस वस्तु का आकार धारण कर लेती हैं । वह वृत्ति वस्तुगत अज्ञान को नष्ट करती हैं और तब अपने में प्रतिबिंबित चैतन्य के आभास द्वारा वस्तु को भी प्रकाशित कर देती हैं। जैसे दीपक की प्रभा घटादि अंधेरे में रखा होने पर भी अंधकार का भी नाश करती हैं और घट को प्रकाशित करती हैं वैसे पूर्व के संदर्भ में योजन करे) प्रत्यक्षयोग्य-विषयाकारवृत्तिसे अवच्छिन्न चैतन्य का प्रत्यक्षविषयावच्छिन्न चैतन्य (वृत्यवच्छिन्न चैतन्य और विषयावच्छिन्न चैतन्य की एकता) ज्ञानगत “प्रत्यक्षत्व' में प्रयोजक हैं । “विषयज्ञान प्रत्यक्ष हैं" इत्याकार में ज्ञानगत प्रत्यक्षत्वका व्यपदेश (व्यवहार) होता हैं। उसी तरह से प्रत्यक्षयोग्य विषय का पूर्वोक्त प्रकार से प्रमातृचैतन्य के साथ अभेद विषयगत-प्रत्यक्षत्व का प्रयोजक हैं। "घटः प्रत्यक्षः" घट प्रत्यक्ष हैं, इस आकार में उसका व्यपदेश होता हैं। चैतन्य ही प्रत्यक्ष-विषय का ज्ञान हैं और चैतन्य अनादि हैं । ऐसी स्थिति में संयोगादि सन्निकर्षोका उपयोग क्या हैं ? इस शंका के उत्तर में ग्रंथकार कहते हैं कि, पूर्वोक्त प्रकार से दो प्रकार के प्रयोजको की सिद्धि होने से संयोग संयुक्ततादात्म्य संयुक्तभिन्नतादात्म्य, तादात्म्य, अभिन्न तादात्म्य सन्निकर्षो का घट, घटगतरुप, रुपगत रुपत्व, शब्द और शब्दत्व से अवच्छिन्न चैतन्य को अभिव्यक्त करनेवाली वृत्ति को उत्पन्न करने में विनियोग होता हैं। (अर्थात् संयोगादि सन्निकर्ष तद् तद् विषयावच्छिन्न चैतन्य की अभिव्यंजकवृत्ति को पैदा करता हैं। संयोग से घटाकारवृत्ति, संयुक्ततादात्म्य से घटगतरुपाकारवृत्ति, संयुक्ता-भिन्नतादात्म्य से घट-रुपगत रुपत्वाकारवृत्ति, तादात्म्यसे शब्दाकार वृत्ति और अभिन्न तादात्म्यसे शब्दगत-शब्दत्वाकार वृत्ति पैदा होती हैं और प्रत्येक वृत्ति चैतन्य की अभिव्यंजक हैं। ये सन्निकर्षो से उत्पन्न होनेवाली अंतःकरणवृत्ति चार प्रकार की हैं, वह बात को बताते हुए वेदांतपरिभाषा में कहा हैं कि सा च वृत्तिश्चतुर्विद्या संशयो, निश्चयो, गर्वः, स्मरणमिति । एवंविधवृत्तिभेदेन एकमप्यन्तःकरणं मन इति बुद्धिरिति अहङ्कार इति चित्तमिति व्याख्यायते । तदुक्तम्-मनोबुद्धिरहङ्कारश्चितं करणमान्तरमत्। संशयो निश्चयो गर्वः स्मरणं विषया इमे ॥१॥ वह सन्निकर्ष जन्य वृत्ति चार प्रकार की हैं- संशय, निश्चय, गर्व और स्मरण । अंतःकरण एक होने पर भी इस वृत्तिभेद के कारण वह मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त इन शब्दो से बोला जाता हैं । इस अंतःकरणवृत्ति के विषय में पूर्वाचार्यो ने इस अनुसार कहा हैं कि- 'मन, बुद्धि, अहंकार और चितरुप से चार प्रकार का अंतःकरण हैं। संशय, निश्चय, गर्व (अहंकार) और स्मरण, वे अंतःकरण के अनुक्रम से विषय हैं। (इस विषय की विशेष जिज्ञासा की तृप्ति वेदांतपरिभाषा आदि ग्रंथो से करें ।) पूर्वोक्त प्रत्यक्ष के दूसरी पद्धति से दो प्रकार हैं। (१) घ्राणादि पांच इन्द्रियों से जन्य इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष और (८४) अयं घट इति घटाकाराकारितचित्तवृत्तिज्ञातं घटं विषयीकृत्य तद्गताज्ञान-निरसनपुरस्सरं स्वगतचिदाभासेन जडं घटमपि भासयति । (वेदान्तसार) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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