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________________ ३२० षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ विशेषार्थ : सांख्यशास्त्र की आचार्य परम्परा का उल्लेख करते हुए कारिकाकार आचार्य ईश्वरकृष्ण कहते है कि यह पवित्र और श्रेष्ठज्ञान, जो कपिल मनि को जन्म से प्राप्त था. कपिल मनिने सर्वप्रथम अपने प्रिय शिष्य आसरि को अत्यन्त अनुग्रहपूर्वक प्रदान किया। तत्पश्चात् आचार्य आसुरिने इसका उपदेश पञ्चशिख नामक आचार्य को प्रदान किया। पुनः उन्होंने इस ज्ञान की अनेक प्रकार से कथा, उदाहरण आदि का उल्लेख करते हुए विस्त स्तृत व्याख्या प्रस्तुत की। अवतरणिका : आचार्य ईश्वरकृष्ण स्वयं के विषय में स्वविरचित सांख्यकारिका ग्रन्थ के सम्बन्ध में उल्लेख करते है - शिष्यपरम्परयागतमिश्वरकृष्णेन चैतदार्याभिः । संक्षिप्तार्यमतिना सम्यग्विज्ञाय सिद्धान्तम् ।।७१॥ भावार्थ : और शिष्य परम्परा से इस सारभूत तत्त्व (सिद्धान्त को) आचार्य ईश्वरकृष्णने (अपनी) सूक्ष्मतत्त्वदर्शनी बुद्धि के द्वारा भलीप्रकार जानकर आर्या (छन्द) द्वारा संक्षिप्तरुप में (प्रस्तुत किया)। व्याख्या : आचार्य ईश्वरकृष्ण को सांख्यशास्त्र के ज्ञान की प्राप्ति किसी एक आचार्य विशेष से न होकर, तत्कालीन सांख्यपण्डितों द्वारा स्वयं अध्यवसाय द्वारा तथा उस समय उपलब्ध सांख्यशास्त्र के षष्टि तन्त्र आदि अनेक ग्रंथो से हुई, जिसकी अभिव्यक्ति कारिका के प्रथम चरण में प्रयुक्त 'शिष्यपरम्परया आगतम्' पदों द्वारा हो रही है। इस प्रकार प्राप्त सांख्यज्ञान को अपनी तत्त्वविवेकिनी बुद्धि से भलीप्रकार समझने के बाद ही उन्होंने आर्या छन्द में अत्यन्त संक्षेप में सांख्यकारिका ग्रंथ के रुप में निबद्ध किया है। अवतरणिका : सत्तर श्लोको में निबद्ध सांख्यकारिका नामक यह ग्रंथ वस्तुतः विस्तृत षष्टितन्त्र नामक ग्रंथ का संक्षिप्त रुप है, इसका प्रतिपादन करने के लिए अन्तिम कारिका को अवतरित करते हैं -- सप्तत्यां किल येऽर्थास्तेऽर्थाः कृत्स्त्रस्य षष्टितन्त्रस्य । आख्यायिकाविरहिताः परवादविवजिताश्चापि ॥७२॥ भावार्थ : सत्तर कारिकाओं की संख्या से युक्त सांख्यकारिका में जो भी विषय (निबद्ध किए गए है) वे सब निश्चय ही विशाल षष्टितन्त्र के (है) किन्तु यहाँ वे सब विषय आख्यानों से रहित एवं मतमतान्तरों से विवर्जित (प्रयुक्त हुए है)। व्याख्या : सांख्यकारिकाकार ने पञ्चशिखाचार्य द्वारा विरचित ग्रन्थ को सांख्यकारिका का उपजीव्य स्वीकार करते हुए स्पष्टरूप से कहा कि जिन सत्तर कारिकाओं की रचना की गई, उन सबमें प्रतिपादित सिद्धान्तों का आधार ग्रंथ एक मात्र षष्टितन्त्र है। षष्टितन्त्र अत्यन्त विशाल सांख्यशास्त्रीय ग्रंथ है, जिसमें अनेक विस्तृत आख्यानों, कथाओं आदि को निबद्ध किया गया है। साथ ही उस समय प्रचलित दर्शनविषयक मतमतान्तरों को भी प्रतिपादित किया गया है, किन्तु सांख्यकारिका में उन सबको छोडकर सिद्धान्त की दृष्टि से उपयोगी सामग्री को ही निबद्ध किया है। __ अवतरणिका : आचार्य माठर ने अपनी टीका में एक अन्य कारिका का भी उल्लेख किया है। यद्यपि इसका अन्यत्र उल्लेख नहीं हुआ है तथापि इसकी यहाँ प्रस्तुति की जा रही है - तस्मात्शास्त्रमिदं नार्थतश्च परिहीनम्। तन्त्रर्सदर्पणसंक्रान्तिमिव बिम्बम् ॥७३॥ भावार्थ : इसमें छोटा दिखाई देता हुआ (सांख्यकारिका नामक) यह शास्त्र विषय की दृष्टि से (वस्तुतः यह) विशाल आकारवाले षष्टितन्त्र का, दर्पण में पडे हुए प्रतिबिम्ब ही है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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