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________________ २९८ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ दृष्ट में चारों की वृत्ति दो प्रकार से है। युगपत् यानी कि एकसाथ और क्रमशः यानी कि क्रमपूर्वक । श्री वाचस्पति मिश्र दृष्टांत देते है कि घन अंधेरे में बीजली का चमकना हो और अचानक ही शेर (बाघ) दिखाई दे, तो तुरंत ही इन्द्रियो का आलोचन, बुद्धि का अध्यवसाय, अहंकार का अभिमान और मन का संकल्प ये चारो वृत्ति एकसाथ ही होती है । और कम उजाले में प्रथम दूर से कोई आकृति दिखाई दे, फिर मन से संकल्प और अहंकार से क्रमशः निश्चित होता है, कि ये मुझे लूंटने के लिए आता हुआ चोर ही है। इस प्रकार यहाँ चारो की क्रमशः वृत्ति दिखती है। अदृष्ट के ग्रहण में ये दो प्रकार की वृत्ति होती है । परन्तु यहां इन्द्रियां प्रत्यक्ष रुप में वस्तु के संपर्क में आती नहीं है। इसलिए बुद्धि, अहंकार और मन, ये तीन को ही ये द्विविध वृत्ति होती है। यहाँ अनुमान या शब्द से प्राप्त ज्ञान का निर्देश है। अर्थात् इन्द्रियो के सीधे सम्पर्क की आवश्यकता नहीं है । परन्तु इसलिए इन्द्रियो का यहाँ बिलकुल उपयोग ही नहीं ऐसा नहीं है । परन्तु उन्हों ने अदृष्ट के लिए भूमिका पहले ही रच दी होती है । और अदृष्ट के ग्रहण में भी युगपत् और क्रमशः वृत्ति होती है। उसमें अनुमान में सिंह गर्जना सुनते ही यह सिंह है, ऐसे एकसाथ ही तीनो अंतःकरण की वृत्ति होती है और सारे प्रदेश में भी 'यह प्राणी वह गाय है'। ऐसा तुरंत ही उसका ग्रहण होता है । "पितृपितामहप्रपितामहेभ्यो दद्यात् " ये वाक्य सुनकर किसके पितृओं को पिंड अर्पण करना ऐसी शंका होने बाद, सोचने के बाद अपने ही पितृओं को पिंड देना ऐसा यजमान क्रमशः निर्णय करता है । पूर्वोक्त त्रिविध या चतुर्विध करणों की क्रमशः अथवा युगपत् प्रवृत्ति किस कारण से होती है, इस जिज्ञासा का उत्तर देते हुए कारिकाकार कहते है कि, "स्वां स्वां प्रतिपद्यन्ते परस्पराकूतहेतूकां वृत्तिम् । पुरुषार्थ एव हेतुर्न केनचित् कार्यते करणम् ॥३१॥” भावार्थ : (चारो प्रकार के करण ) परस्पर के संकेत से प्रेरित होकर अपनी अपनी वृत्ति = क्रिया करते है । उनकी यह क्रिया पुरुष के लिए ही होती है। अन्य कोई करण को क्रिया करवाता नहीं है। जिन करणों की प्रवृत्ति एकमात्र पुरुष के लिए होती है, उनकी संख्या, विषय-विभाग, प्रयोजन एवं इनके द्वारा सम्पादित किए जानेवाले कार्यो को बताने के लिए आगे कहते है कि, "करणं त्रयोदशविधं तदाहरणधारणप्रकाशकरम् । कार्यं च तस्य दशधाऽऽहार्यं धार्यं प्रकाश्यञ्च ॥३२॥" भावार्थ : आहरण, धारण और प्रकाश करनेवाले ये तीन करण तेरह प्रकार के है । (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार) और उनका आहार्य, धार्य और प्रकाश्य, ऐसा कार्य (प्रत्येक) दस दस प्रकार का है। श्री वाचस्पति मिश्र के मतानुसार कर्मेन्द्रियाँ आहरण, बुद्धि, अहंकार और मन धारण तथा बुद्धीन्द्रियाँ प्रकाशित करने का कार्य करती है। जब कि श्री माठर के अनुसार से सभी इन्द्रियाँ आहरण करती है। अहंकार और बुद्धि अनुक्रमसे धारण और प्रकाशन करते है । इन कारणो का जो कार्य है वह भी इससे आहार्य, धार्य और प्रकाश्य हुआ । कार्य दस प्रकार का है। ये दस प्रकार कौन से है, इसके बारे में भी टीकाकारो में ऐकमत्य नहीं है। श्री गौड के अनुसार पाँच बुद्धीन्द्रिय के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध ये पाँच विषय और पाँच कर्मेन्द्रिय के वचन, आदान, विहरण, उत्सर्ग और आनंद ये पाँच विषय, ऐसे कुल मिलाकर दस प्रकार का कार्य हुआ। श्री युक्ति का भी यही मत है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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