SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९६ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ अहंकार से उत्पन्न सृष्टि में किस गुण का कहाँ प्राधान्य है इसका कथन अग्रिम कारिका में करते है -- "सात्विक एकादशकः प्रवर्तते वैकृतादहङ्कारात् । भूतादेस्तन्मात्रः स तामसस्तैजसादुभयम् ॥२५॥" भावार्थ : सात्त्विक ऐसे 'वैकृत' अहंकार में से ग्यारह का समुदाय उत्पन्न होता है। भूतादि अहंकार में से तन्मात्राये उत्पन्न होती है। और इसलिए यह तामस् है और (राजस् ऐसे) 'तेजस' अहंकार में से दोनो की उत्पत्ति होती है। इस कारिका में अहंकार के तीन स्वरुप बताये है । सात्त्विक, राजस् और तामस् । सात्त्विक अहंकार को वैकृतअहंकार कहा जाता है। राजस् को तैजस् और तामस् को भूतादि अहंकार ऐसे नाम दिये गये है। एकादस गण में से जो पांच ज्ञानेन्द्रिय के तथा पांच कर्मेन्द्रियो का नामोल्लेख करते हुए अग्रिम कारिका का अवतरण करते है - "बुद्धीन्द्रियाणि चक्षुः श्रोत्र-घ्राण-रसनत्वगाख्यानि। वाक्-पाणि-पाद-पायूपस्थानि कर्मेन्द्रियाण्याहुः ॥२६॥" भावार्थ : चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना और त्वचा, ये (पाँच) ज्ञानेन्द्रियाँ है। वाणी, हाथ, पैर, मलोत्सर्ग की इन्द्रिय और जननेन्द्रिय, ये (पाँच) कर्मेन्द्रियाँ है। अब ग्रंथकार उत्कृष्ट सत्त्वप्रधान अहंकार से उत्पन्न संकल्पविकल्पात्मक मन का विस्तृत विवेचन करने के लिए अगली कारिका का अवतरण करते है। "उभयात्मकमत्र मनः सङ्कल्पकमिन्द्रियं च साधर्म्यात् । गुणपरिणामविशेषान्नानात्वं बाह्यभेदाश्च ॥२७॥" भावार्थ : मन उभयात्मक दोनो प्रकार की इन्द्रियो के स्वभाववाला है। वह संकल्पधर्मवाला है और साधर्म्य के कारण वह इन्द्रिय है । गुणो के विशिष्ट प्रकार के परिणामो के कारण इन्द्रियो का वैविध्य और बाह्य भेद संभवित होते है। __ मन उभयात्मक है। सभी इन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनो के साथ उसका सम्पर्क रहता है। क्योंकि मन के संयोग बिना कोई भी इन्द्रिय प्रवृत्त नहीं हो सकती। मन का असाधारण लक्षण "संकल्प" है। संकल्प का अर्थ श्री गौड देते है कि "प्रवृत्तिः कल्पयति" अर्थात् मन द्विविध इन्द्रियो की प्रवृत्तियों का नियामक है। परन्तु श्री वाचस्पति मिश्र दूसरी तरह से समजाते है। "संकल्पयति = विशेषणविशेष्यभावेन विवेचयतीति इन्द्रियाँ पदार्थो का सन्निकर्ष प्राप्त करती है। परन्तु इन पदार्थो के स्वरुप की कल्पना इत्यादि स्पष्ट नहीं होती। प्रत्यक्ष की प्रथम भूमिका "इदं किञ्चित्" इस प्रकार की निर्विकल्पक होती है। परन्तु निर्विकल्पप्रत्यक्ष का व्यवहार में उपयोग नहीं हो सकता। इसलिए सविकल्पक प्रत्यक्ष होना चाहिए। “यह कुछ है"। इसके बदले "यह घट है" इत्यादि नाम, जाति, धर्म और क्रिया से युक्त पदार्थ समज में आये यह जरुरी है। यह सविकल्पता मन का कार्य है। मन को इन्द्रिय कहीं है। क्योंकि वह अन्य दस इन्द्रियो के साथ साधर्म्य रखती है। सभी इन्द्रियो की तरह मनका भी उपादान सात्त्विक अहंकार है। यहाँ एक प्रश्न होता है कि, ये ग्यारह इन्द्रियां यदि सात्त्विक अहंकार में से ही उत्पन्न हुई हो, यानी कि उसका उपादान, एक ही हो, तो फिर उन सब में भिन्नता क्यों दिखती है ? एक में से उत्पन्न होने पर भी नानात्व (वैविध्य) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy