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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका - शुद्धाद्वैत सिद्धांत के पुरस्कर्ता श्री वल्लभाचार्य के मतानुसार द्विभुज कृष्ण के साथ कृष्ण के अंशभूत जीवो का गोलोक में जो लीला का अनुभव करना, उसे मोक्ष कहा जाता हैं ।(27) विशेष में, त्रिदंडी संप्रदाय आनंदमय परमात्मा में जीवात्मा के लय को मोक्ष कहते हैं ।(28) भेदाभेद सिद्धांत के पुरस्कृर्ता श्री भास्कराचार्य के मतानुसार जीव के लिंग शरीर का नाश हो, उसे मोक्ष कहा जाता हैं । (29) वैष्णवो के मतानुसार विष्णु की भक्ति और धर्माचरण से विष्णु लोक में गमन होना उसे मोक्ष कहा जाता हैं।(30) कुछ लोग अक्षय शरीरादि लाभ को मोक्ष कहते हैं ।(31) श्री अभिनव गुप्ताचार्य के मतानुसार पूर्णात्मता के लाभ को मोक्ष कहा जाता है। पाशुपत संप्रदाय के मतानुसार पाशुपत के धर्म के आचरण से पशुपति (भगवान) के पास पुनः संसार में आगमन न हो उस तरह से गमन करना उसे मोक्ष कहा जाता है ।(32) श्री पाणिनी ऋषि के संप्रदाय के मतानसार परा. पश्यन्ती. मध्यमा और वैखरी - इन चार वाणी में से प्रथम 'परा' नाम की ब्रह्मरूप वाणी द्वारा दर्शन करना उसे मोक्ष कहा जाता हैं ।(33) यहाँ उल्लेखनीय है कि, वेदांती और मीमांसक कुमारील भट्ट के बीच मोक्ष के विषय में बहोत अन्तर हैं ।(34) अद्वैत वेदांती प्रपंच के विलय को मोक्ष कहते हैं । मीमांसक प्रपंच के संबंध के विलय को मोक्ष कहते हैं। वेदांतीओं की मान्यता है कि, स्वप्न प्रपंच की तरह यह संसार प्रपंच अविद्यानिर्मित हैं । इसलिए ब्रह्मज्ञान होने से अविद्या विलीन होने से जगत् की सत्ता ही नहीं रहती है । प्रपंच का ही विलय हो जाता है । जब मीमांसक की मान्यता उससे एकदम भिन्न हैं । मुक्तावस्था में संसार की अवस्था उसी प्रकार से रहती हैं कि जिस प्रकार से अविद्यादशा में रहती हैं । मात्र बंध का नाश हो जाता है और यही दोनों अवस्थाओं का अंतर हैं । तदुपरांत श्री कुमारिल भट्ट के मोक्ष से श्री प्रभाकर मिश्र का मोक्ष अलग है । श्री प्रभाकर के मतानुसार बाह्य किसी भी प्रकार के फल की अपेक्षा के बिना कर्तव्य बुद्धि से नित्यकर्मो का अनुष्ठान ही मोक्ष है । इसलिए मुक्ति अनवरत कार्य की दशा हैं, जिसमें क्रिया को छोडकर अन्य फल की आकांक्षा रहती नहीं हैं ।(35) योगदर्शन के मतानुसार पुरुष के भोग-अपवर्गरूप पुरुषार्थ के संपादन से कृतार्थ हुए पुरुषार्थ शून्य कार्य-कारणरूप गुणो का जो प्रतिप्रसव होना (अर्थात् व्युत्थान, समाधि और निरोध ये तीनो के संस्कारो का मन में लय, मन का अहंकार में लय, अहंकार का लिंगरूप बुद्धि में लय और बुद्धि का (गुण स्वरूप) प्रधान (मूल प्रकृति) में लय हो जाना) उसे पुरुष का कैवल्य जानना अर्थात् पुरुष का मोक्ष जानना अथवा बुद्धिसत्त्व के साथ पुनः कभी भी संबंध होनेवाला न होने से पुरुष की जो निरंतर केवल चितिशक्तिरूप मात्र से अवस्थान रूप स्वरूप प्रतिष्ठा है, उसे कैवल्य (मोक्ष) कहा जाता हैं ।(36) नास्तिक ऐसे चार्वाक के मतानुसार स्वतंत्रता ही मोक्ष हैं अथवा मृत्यु यही मोक्ष है । चार्वाक देह से अतिरिक्त आत्मा को स्वीकार करता ही नहीं है । उसके मतानुसार देह का नाश यही मोक्ष हैं ।(37) 27. द्विजकृष्णेन सह स्वांशभूतानां जीवानां गोलोके लीलानुभव इति वल्लभीयाः । (सर्वलक्षणसंग्रहः) 28. आनन्दमयपरमात्मनि जीवात्मलय इति त्रिदण्डिन: 1 29. जीवस्य लिङ्गशरीरापगम इति भास्करीयाः । 30. विष्णुभक्तिधर्माचरणाद्विष्णुलोकगमनं । वैष्णवा: 131. अक्षयादिशरीरलाभः 32. पाशुपतधर्माचरणात्पशुपतिसमीपगमनमेव पुनरावृत्तिरहितमिति पाशुपतः । (सर्वलक्षणसंग्रहः) 33. परापश्यन्तीमध्यमावैखरीति वाणीचतुष्टये प्रथमायाः पराख्यायाः ब्रह्मरुपाया: वाण्या दर्शनमिति पाणिनीया: (सर्वलक्षणसंग्रहः) 34.प्रपञ्चविलयो मोक्षः इति वेदान्तिनः । (मानमेयोदेयः) प्रपञ्चसम्बन्धविलयो मोक्षः इति भाट्टाः । (प्रकरणपञ्चिका) 35.नियोगसिद्धिरेव मोक्षः (प्रकरणपञ्चिका-) 36. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरुपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ।।३४ ।। (योगसूत्र४-३३) 37. स्वातन्त्र्यम् मृत्युवेति चार्वाका: । (सर्वलक्षणसंग्रहः) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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