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________________ २७२ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ पुरुष के अस्तित्व की सिद्धि आगे कारिका के अर्थ के वर्णन में आयेगा। पुरुष एक नहीं, अनेक है। सर्वपुरुष अनंत है। अविकारी, सर्वव्यापी और नित्य है। पुरुष बहुत्व के लिए दलिल इस अनुसार से है। जन्म, मरण, ज्ञान इत्यादिक विषयो में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के बीच अंतर होता है। जीवो में एक साथ एक ही प्रवृत्ति होती दिखाई नहीं देती। उपरांत जीवात्माओ में तारतम्य दिखाई देता है। इसलिए पुरुष अनेक है। विशेष सांख्यकारिका के वर्णन में आगे बताया गया है। ___ सांख्य का यह पुरुषबहुत्ववाद उसके द्वैतवाद के अनुबंध में है। बुद्धितत्त्व अनेक है। उसके उपर पडते पुरुष के प्रतिबिंब से वैविध्य उद्भवित होता है। यह वैविध्य पुरुष की अनेकता से संभवित होता है। • पुरुष-प्रकृति संयोग : पुरुष-प्रकृति संयोग यह बहुचर्चित समस्या बन गई है। अचेतन प्रकृति में वैषम्य आया और सृष्टिसर्जन हुआ वह पुरुष के लिए शायद हुआ होगा। परन्तु किस तरह से संभव हुआ, यह भी एक प्रश्न है। अचेतन अपने आप ही प्रवृत्ति नहीं कर सकता है। पुरुष का सामीप्य जड को चेतन नहीं बना सकता । सांख्य कारिका-२० में कहा गया है कि. "तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम् । गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्युदासीनः ॥ और इसलिए उसके (पुरुष के) संयोग के कारण अचेतन (महदादि) लिंग सचेतन जैसे लगता है और गुणो में कर्तुत्व होने पर भी उदासीन पुरुष कर्ता जैसा लगता है। भावार्थ : हमने देखा कि, पुरुष और प्रकृति तात्त्विक पद्धति से परस्पर अत्यन्य भिन्न है। एक चेतन है तो अन्य जड है, एक निर्गुण - अकर्ता और केवल द्रष्टा है, तो अन्य त्रिगुणात्मक, विकारशील और इसलिए अन्य के दर्शन का विषय है। ये दोनो परस्पर किसी भी तरह से संबंध ही रखते नहीं है। हमको होनेवाले सृष्टि के अनुभवो में इस उभय का सहयोग है। प्रकृति चाहे जड हो फिर भी वह एक महत्त्व का तत्त्व है । सत्त्व (बुद्धि) का धर्म है प्रकाश। परन्तु यह प्रकाश स्वयंभू नहीं है। वह पुरुष के सान्निध्य से प्रकाशित होता है और फिर प्रकाश का परावर्तन करता है। यह परावर्तित प्रकाश प्रकृति का है, वैसा आभास होता है और इसलिए वह अचेतन होने पर भी जैसे कि चेतना हो ऐसा लगता है। (तत् संयोगात् अचेतनं चेतनावदिव लिङ्गम्) प्रकृति में रजोगुण है । वह चल है प्रवृतिशील है। रजस् के कारण प्रकृत्ति में क्रिया होती है और इसलिए गुण ही कर्ता है। परन्तु यह क्रिया भी पुरुष के सान्निध्य में होती है। इसलिए अकर्ता होने पर भी पुरुष जैसे कि कर्ता है, ऐसी भ्रान्ति होती है। पुरुष को भ्रान्ति से कर्ता माना जाता है। यह समजाने के लिए व्याख्याकारोने अलग-अलग दृष्टांत दीये है। ___ "यथा अचौरश्चौरैः सह गृहीतश्चौर इत्यवगम्यते । यथाऽग्निसंयोगात् लोहं मणिरित्युच्यते । अनुष्णाशीतो घटः शीताभिरद्भिः संस्पृष्टः शीतो भवति; अग्निना संयुक्तो उष्णो भवति ।" ___ तत्त्ववैशारदी टीका में पं. श्री वाचस्पति मिश्र समजाते है कि सन्निधान से चित्त का प्रतिबिंब बुद्धितत्त्व में पडता है। और इस वजह से बुद्धिवृत्ति चेतन में परिणमित होती है। पुरुष अकर्ता है। परन्तु प्रकृति में (बुद्धिमें) प्रतिबिंब पाडने की योग्यता के कारण वह भी ज्ञाता या भोक्ता हो ऐसा लगता है। विज्ञानभिक्षु द्विविध छायापत्ति का सिद्धांत बताते है।( पेश करते है।) इस अनुसार से पुरुष की छाया जब बुद्धि में पडती है, तब बुद्धि की और उसके द्वारा प्रकृति की छाया भी पुरुष में पडती है और इसलिए बुद्धि जैसे चैतन्य को महसूस करती हुए लगती है, वैसे पुरुष भी भोक्ता है, ऐसा लगता है। इसके संदर्भ में प्राचीन सांख्याचार्य आसूरि का मत नीचे के श्लोक में दिखाई देता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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