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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, सांख्यदर्शन का विशेषार्थ
प्रवर्तित है । ( वह आगे बताया जायेगा ।)
न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार आकाश के सिवा चार महाभूत उसके सूक्ष्मपरमाणुओ में से उत्पन्न होते है। प्रत्येक द्रव्य के परमाणु अलग-अलग होते है। उपरांत परमाणुओ में ही उस उस द्रव्य के विशेषगुण भी रहे हुए है। सांख्यदर्शन का मत इससे अलग है। वह सरलता से समजा जा सकता है। स्थूल महाभूत परमाणु रुप में होते है । परन्तु वे अनादि या स्वतंत्र नहीं है। उनका उद्भव तन्मात्राओ में से होता है। सांख्य में जिसको तन्मात्राएं कही है, उसका शायद न्याय-वैशेषिक में गुण के साथ साम्य होगा । परन्तु नैयायिको - वैशेषिको के मतानुसार द्रव्य में रुप, रस इत्यादिक उत्पन्न होते है । तब इससे विपरित सांख्यदर्शन में उन तन्मात्राओ में से भूतो का उद्भव होता है ।
भूतो में से स्थूलभौतिक पदार्थ बनते है । शरीर भी उसमें से ही बनता है। शरीर उष्मज (जन्तु इत्यादि), अंडज (पक्षी इत्यादि), जरायुज (मनुष्य इत्यादि), उद्भिज् (वनस्पति), संकल्पज और सांसद्धिक, ऐसे छः प्रकार के है ।
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अन्यदर्शनो में जिसको जीवशक्ति मानी जाती है। वह प्राण सांख्यदर्शन में कोई अलग तत्त्व नहीं है । परन्तु मन, बुद्धि और अहंकार ये अंतःकरण की ही वृत्तियां है, ये तीन इन्द्रियां और तन्मात्रा साथ मिलकर अठारह तत्त्वो का एक लिंग शरीर बनाती है- सृजन करती है । भौतिकदेह के मृत्यु के साथ लिंग शरीर उससे अलग होकर विवेकख्याति नहीं होती है, तब तक नये शरीरो को धारण करता रहता है।
दिशा और काल भी सांख्यदर्शन में स्वतंत्र तत्त्व नहीं है । परन्तु आकाश की उपाधि मात्र है।
इस तरह से उपर सांख्यदृष्टि से जो सर्गका वर्णन किया, उस सर्ग को दो प्रकार का माना जाता है। भावसर्ग और प्रत्ययसर्ग (= बुद्धिसर्ग) । यह सर्ग बुद्धि, अहंकार, मन, दस इन्द्रियां मिलकर तेरह (१३) कारणो का बना हुआ है और धर्म-अधर्म इत्यादिक आठ भावो के अनुसार उसका नियमन होता है और लिंगसर्ग या तन्मात्रसर्ग, उसमें तन्मात्र और भूतो का समावेश होता है ।
प्रकृत्ति की इस सर्गप्रक्रिया को तत्त्वान्तरप्रक्रिया भी कहा जाता है । उसमें प्रकृति सहित २४ तत्त्वो का अन्तर्भाव किया जाता है | उसमें बुद्धि, अहंकार और तन्मात्रा प्रकृतिविकृति और ग्यारह (११) इन्द्रियाँ और पंचभूत ये सोलह (१६) विकार कहे जाते है । (सृष्टि के विकासक्रम का चार्ट आगे दिया हुआ है ।)
• पुरुष : अचेतन ऐसी प्रकृति की सर्गलीला जानने के बाद सहज ऐसा प्रश्न होता है कि, यह सब क्यों होता है ? प्रकृति स्वयं जड है । उसको इसमें किसी भी प्रकार का अनुभव हो, यह संभव नहीं है । वैसे भी यह सब करनेवाला कोई अन्य नियामकतत्त्व है, ऐसा तो सांख्यदर्शन मानता नहीं है। तो उसको क्या अकस्मात् मान ले ? सांख्यदर्शन कहता है कि, यह सृष्टिव्यापार केवल अकस्मात ही है, ऐसा नहीं है । वह किसी निश्चित प्रयोजन से होता है । और वह प्रयोजन है पुरुष के भोग और अपवर्ग ।
पुरुष के लिए प्रकृति यह सर्गव्यापार की क्रिया करती है। पुरुष प्रकृति से नितान्त विपरीत है । वह चैतन्य है। निर्गुण है। विवेक है। प्रकृति प्रसवधर्मि है। पुरुष अप्रसवधर्मि है। प्रकृति सक्रिय है । पुरुष निष्क्रिय है। प्रकृति विकारी है । पुरुष अविकारी है। इसलिए वह कूटस्थ नित्य है ।
प्रकृति की लीला का वह केवल साक्षी या भोक्ता ही है । वह शुद्ध चैतन्य है । वह केवल वही है। सांख्यो के पुरुष
सभी गुण का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है। पल पल में परिणमन पाते जडविश्व के सामने वह एक
निश्चल अविकारी तत्त्व के रुप में रहता है। उसका प्रतिबिंब जडबुद्धि को प्रकाशित करता है। ही बाद में क्रियावती बनती है। मानव ज्ञान के सर्व प्रकार इस तरह से पुरुष के कारण
चेतनवती लगती बुद्धि संभव होते है ।
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