SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ४१, सांख्यदर्शन टीकाका भावानुवाद : आचार्य श्री आसुरि ने भी कहा है कि - जैसे स्वच्छ पानी में चन्द्रमा का प्रतिबिंब उदय प्राप्त करता है, वैसे बुद्धि से भिन्न चैतन्य का बुद्धि में प्रतिबिंब पडना वही भोग कहा जाता है । कहने का आशय यह है कि, चंद्रमा का प्रतिबिंब जैसे जल का ही विकार है, चन्द्रमा का नहीं। वैसे बुद्धि में पडता पुरुष का प्रतिबिंब बुद्धि का ही विकार है, आत्मा का नहीं । यही आत्मा का भोग है । उपरांत श्री विन्ध्यवासी इस अनुसार से कहते है- पुरुष तो अविकारी ही है, परन्तु अचेतन मन अपने सान्निध्य से पुरुष को अपनी तरह (स्वतुल्य) विकारी बना देता है। जैसे कि, जपाकुसुम इत्यादिक उपाधियाँ अपने सान्निध्य से स्वच्छ - निर्मल स्फटिक को स्वतुल्य रक्तादि बना देता है, वैसे निर्मल पुरुष को भी मन अपने सान्निध्य से स्वतुल्य बना देता है । नित्यचेतना (चैतन्य) ही पुरुष का यथार्थस्वरुप है । इसलिए पुरुष का स्वरुप चैतन्य ही है, ज्ञान नहीं है । क्योंकि ज्ञान बुद्धि का धर्म है। केवल (अविवेक से) आत्मा अपने को बुद्धि से अभिन्न मानता है । सुख-दुःखादि विषयो का इन्द्रिय के द्वारा बुद्धि में संक्रमण होता है । बुद्धि दोनो तरफी पारदर्शक दर्पण जैसी है। इसलिए बुद्धि में चैतन्यशक्ति प्रतिबिंबित होती है। इससे "मैं सुखी हूँ।” और “मैं दुःखी हूँ," “मैं ज्ञाता हूँ” ऐसा उपचार होता है। (कहने का मतलब यह है कि, बुद्धि दोनो ओर से पारदर्शी दर्पण समान होने से जैसे एक ओर सुख-दुःखादि का प्रतिबिंब पडता है। वैसे ही दूसरी ओर पुरुष के चैतन्य का प्रतिबिंब पडता है। इस प्रकार चैतन्य और सुखादि विषय का एकसाथ प्रतिबिंब पडने से ही पुरुष अपने को “मैं ज्ञाता हूँ,” “मैं सुखी हूँ" इत्यादि मानने लगता है ।) श्री पतंजलिने भी कहा है कि "पुरुष तो शुद्ध है ( फिर भी ) बुद्धि संबंधित प्रत्यय अर्थात् सुखदुःखादि ज्ञानवृत्ति को देखता है। इसलिए बुद्धि के अध्यवसित अर्थो को देखता तद्स्वरुप न होने पर भी तद्स्वरुप प्रतिभासित होने लगता है। अर्थात् ज्ञातृत्वादि धर्मो से रहित पुरुष भी ज्ञातृत्वादि धर्मो से सहित हो वैसा लगता है । " तथा “बुद्धि स्वयं अचेतन होने पर भी पुरुष की चैतन्य शक्ति के सान्निध्य से बुद्धि भी चेतनवती प्रतिभासित होती है ।" श्लोक में "पुमान्" शब्द में एकवचन प्रयोग किया है। वह पुरुषत्व जाति की अपेक्षा से किया है । परन्तु व्यक्ति की अपेक्षा से तो पुरुष अनेक है। क्योंकि एक पुरुष की मृत्यु के बाद दूसरे पुरुष का जन्म दिखाई देता है तथा एक सुखी और एक दुःखी दिखाई देता है, इसलिए धर्म-अधर्मादि की व्यवस्था (प्रवृत्ति) अनेक प्रकार से दिखाई देती होने से पुरुष भी अनेक है, वैसा सिद्ध होता है। वे सभी आत्माओ को सर्वगत और नित्य जानना । एक स्थल पे कहा है कि, सांख्यदर्शन में आत्मा अमूर्त, चेतन, भोगी, नित्य, सर्वगत, अक्रिय, अकर्ता, निर्गुण और सूक्ष्म माना गया है | ॥४१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy