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________________ २५२ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ४१, सांख्यदर्शन प्रकृतेश्चतुर्विंशतितत्त्वरूपाया अन्यस्तु पृथग्भूतः, पुनरकर्ता विगुणो भोक्ता नित्यचिदभ्युपेतश्च पुमान्पुरुषस्तत्त्वम् । तत्रात्मा विषयसुखादिकं तत्कारणं पुण्यादिकर्म च न करोतीत्यकर्ता,, आत्मनस्तृणमात्रकुब्जीकरणेऽप्यसमर्थत्वात् । की तु प्रकृतिरेव, तस्याः प्रवृतिस्वभावत्वात् । तथा विगुणः सत्त्वादिगुणरहितः, सत्त्वादीनां प्रकृतिधर्मत्वादात्मनश्च तदभावात् । तथा भोक्ता अनुभविता । भोक्तापि साक्षान्न भोक्ता, किं तु प्रकृतिविकारभूतायां ह्युभयमुखदर्पणाकारायां बुद्धौ संक्रान्तानां सुखदुःखादीनां पुरुषः स्वात्मनि निर्मले प्रतिबिम्बोदयमात्रेण भोक्ता2-13 व्यपदिश्यते, बुद्धयध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयत इति वचनात् । यथा जपाकुसुमादिसन्निधानवशात्स्फटिके रक्ततादि व्यपदिश्यते, तथा प्रकृत्युपधानवत्त्वात्सुखदुःखाद्यात्मकानामर्थानां पुरुषस्य भोजकत्वं युक्तमेव व्यपदिश्यते । वादमहार्णवोऽप्याह-“बुद्धिदर्पणसंक्रान्तमर्थप्रतिबिम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंस्यध्यारोहति, तदेव भोक्तृत्वमस्य, न त्वात्मनो विकारापत्तिरिति” टीकाका भावानुवाद : अव्यक्तप्रकृति व्यक्त से विपरीत है। अव्यक्त में विपरीतता इस अनुसार से है -- (१) प्रधान (अव्यक्त) किसी से उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए उसका कोई कारण नहीं है। इसलिए वह अहेतुमत् है । (२) प्रधान अनादि होने से नित्य है। (३) प्रधान सर्वत्र विस्तरित होने से व्यापी है। (४) प्रधान निष्क्रिय है। क्योंकि सर्वव्यापी होने से उसमें क्रिया संभवित नहीं है । यद्यपि उसमें परिणामरुप क्रिया होती है। परन्तु गति नहीं है। (५) प्रधान (अव्यक्त) एक ही है क्योंकि, अनेकव्यक्त का वह एकमेव कारण है। (६) अव्यक्त अनाश्रित हैं। क्योंकि वह किसी का कार्य नहीं है। (७) अव्यक्त अलिंग है। क्योंकि प्रलयकालमें किसी में लय नहीं पाता है। (८) अव्यक्त अनवयव है। क्योंकि उसमें शब्द इत्यादि अवयव स्थूलरुप से रहते नहीं है अथवा तो वह कृतक नहीं है-उत्पन्न हुआ नहीं है। (९) अव्यक्त स्वतंत्र है, क्योंकि किसी के अधीन नहीं है। प्रधान देवलोक, पृथ्वीलोक और अन्तरिक्ष सर्वत्र व्याप करके रहते है। इसलिए प्रधान व्यापी है। इस प्रकार उस अनुसार से प्रधान (अव्यक्त) व्यापक होने के कारण (उसकी) संचरणरुप क्रिया का अभाव है। इसलिए अव्यक्त को निष्क्रिय जानना । इस अनुसार से केवल इस विषय में दिशासूचन किया हुआ जानना । इन (उपरोक्त) नव द्वारो की विशेष व्याख्या सांख्यदर्शन के सांख्यसप्तति आदि ग्रंथों में से जान लेना। अब पच्चीसवें पुरुष तत्त्व को कहते है। "अन्यस्त्वकर्ता," चौबीस तत्त्वरुप प्रकृति से भिन्न, अकर्ता, विगुण, भोक्ता और नित्यज्ञानवाला पुरुषतत्त्व है। वहाँ आत्मा = पुरुष विषयसुखो का और विषयसुखो के कारण ऐसे पुण्यादि कर्मो का कर्ता नहीं है। (D-13) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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