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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ४१, सांख्यदर्शन
दस इन्द्रियां और मन अहंकार में लीन होते है । अहंकार बुद्धि में लीन होता है। वह बुद्धि अव्यक्त में लीन होती है। वह अव्यक्त उत्पन्न होता न होने से कहीं भी लीन नहि होता है। (श्री गौडपाद लिंग का अर्थ करते हुए कहते है कि लययुक्त प्रलयकाल में अपने कारण में लीन हो जानेवाले स्वभाववाला व्यक्त है।)
(८) व्यक्त सावयव है : अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध स्वरुप अवयवो से युक्त होने से व्यक्त सावयव भी कहा जाता है । (इस विषय में अनेक मतभेद है। श्री वाचस्पति मिश्र सावयवम् का अर्थ समजाते हुए कहते है कि, जिसमें अवयव और अवयवी के बीच का संयोगसंबंध हो वह सावयव"सावयवम् - अवयवनम् अवयवः मिथः संश्लेषः - मिश्रणं संयोग इति यावत्" जैसे पृथ्वी, जल इत्यादि का एक दूसरे में संयोगसंबंध ही स्वीकार किया गया है, समवाय संबंध नहीं । क्योंकि समवायसंबंध तो तादात्म्य का सूचन करता है। प्रधान और बुद्धि के बीच समवाय संबंध है, संयोगसंबंध नहीं है। इसलिए वहाँ “सावयवम्” पद लागू नहीं पडता है। ऐसा श्रीवाचस्पति मिश्र का मत है I
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श्री शर्मा कहते है कि इस तरह से समजेंगे तो बुद्धि और अहंकार के बीच भी समवायसंबंध ही है, वह बताया जा सकेगा और इसलिए उसको भी सावयव नहीं कहा जा सकेगा। इसलिए श्री वाचस्पति का अर्थ संतोषजनक नहीं है ।
श्रीगौड कहते है कि.. शब्द, स्पर्श, रस, रुप और गन्ध अवयव है। उसके साथ रहने से व्यक्त सावयव है। परन्तु श्री सोवानी कहते है कि प्रत्येक व्यक्ति में ये पाँच साथ ही हो, ऐसा बनता नहीं है। उसके सामने डों.शर्मा कहते है कि रुपादि पाँचो प्रधान में भी सूक्ष्मरुप से तो रहे हुए ही होते है। श्री चन्द्रिका और श्री माठर कहते है कि जो गुणो से युक्त हो वह सावयव ।
ये विविध अर्थ पूर्णतया संतोषजनक लगते नहीं है। वास्तव में तो व्यक्त द्वारा यह दृश्यमान जगत का स्वरुप सूचित किया गया है और जगत के पदार्थ उत्पन्न हुए है, इसलिए वे भागो अर्थात् अवयव के बने हुए है। ऐसा मतलब "सावयव" पद में से निकालना ज्यादा उचित लगता है ।)
(९) व्यक्त परतंत्र है। क्योंकि कारणो के अधीन है। (श्री गौड परतंत्र का अर्थ इस अनुसार से करते है 'जो अपने से उत्पन्न न हो, परन्तु दूसरे से उत्पन्न हो वह परतंत्र' । व्यक्त द्वारा निर्दिष्ट होते हुए तेईस तत्त्व उपर के तत्त्व के सहारे रहे हुए है। यद्यपि बुद्धि इत्यादिक तत्त्व अहंकार इत्यादिक तत्त्वो की उत्पत्ति में स्वतंत्र है । फिर भी प्रकृति की सहाय या शक्ति के बिना वे कुछ भी नहीं कर सकते है । इस कारण से इस अर्थ में परतंत्र है ।)
अव्यक्तं तु प्रकृत्याख्यम्, एतद्विपरीतमिति । तत्र विपरीतता सुयोज्यैव । नवरं प्रधानं दिवि भुव्यन्तरिक्षे च सर्वत्र व्यापितया वर्तत इति व्यापित्वं तस्य, तथाव्यक्तस्य व्यापकत्वेन संचरणरूपायाः क्रियाया अभावान्निष्क्रियत्वं च द्रष्टव्यमिति दिङ्मात्रमिदं दर्शितम् । विशेषव्याख्यानं तु सांख्यसप्तत्यादेस्तच्छास्त्रादवसेयमिति । अथ पञ्चविंशतितमं पुरुषतत्त्वमाह -“ अन्यस्त्वकर्ता” इत्यादि ।
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