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________________ २३२ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३२, नैयायिक दर्शन कहने का मतलब यह है कि, प्रतिवादीने वादी के हेतु का जो खंडन किया हो, उसे वादी समज तो सके, परन्तु उसका अब उत्तर क्या देना, वह वादी समज न सके, तो वादी को अप्रतिभा नामका निग्रहस्थान आ गिरता है और इसलिए उसका पराजय होता है। उसी प्रकार से वादी का कथन समजने पर भी उसका उत्तर क्या देना? वह यदि प्रतिवादी को समज में न आये, तो प्रतिवादी अप्रतिभा नाम के निग्रहस्थान में आ गिरता है और उसका पराजय होता है । ( न्यायसूत्र : उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभा ॥५-२-१९॥ अर्थ स्पष्ट है।) (१७) विक्षेप निग्रहस्थान : किसी भी कार्य का बहाना निकाल के कथा का विच्छेद करना, उसका नाम विक्षेप निग्रहस्थान है। __कहने का मतलब यह है कि, वादी अथवा प्रतिवादी सिद्ध करने की इच्छावाले अर्थ की अशक्य साधनता जान के कथा का छेद करता है । अर्थात् वादी या प्रतिवादी अपने साधन को सिद्ध करने में अपने में असमर्थता को जानकर, कोई बहाना निकालकर कथा का विच्छेद करता है। इसलिए वह निग्रहस्थान में आ गिरता है। जैसे कि, वादी या प्रतिवादी यह मुझे करना बाकी है, पिनस से (रोग विशेष) से कंठावरोध होता है । इत्यादि कहकर कथा का विच्छेद करने से विक्षेप से पराजित होता है । (न्यायसूत्र : कार्यव्यासङ्गात् कथाविच्छेदो विक्षेपः ॥५-२-२०॥ अर्थ स्पष्ट है। यहाँ यह जानना कि, कथा का जो विच्छेद करे वह वादी या प्रतिवादी निग्रहस्थान में आ जाता है।) स्वपक्षे परापादितदोषमनुद्धृत्य तमेव परपक्षे प्रतीपमापादयतो मतानुज्ञाC-84 नाम निग्रहस्थानं भवति । चौरो भवान्पुरुषत्वात् प्रसिद्धचौरवदित्युक्ते भवानपि चौरः पुरुषत्वादिति प्रतिब्रुवन्नात्मनः परापादितं चौरत्वदोषमभ्युपगतवान् भवतीति मतानुज्ञया निगृह्यते १८। निग्रहप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणंC-85 नाम निग्रहस्थानं भवति, पर्यनुयोज्यो नाम निग्रहोपपत्त्यावश्यं नोदनीय इदं ते निग्रहस्थानमुपनतमतो निगृहीतोऽसीति वचनीयः, तमुपेक्ष्य न निगृह्णाति यः स पर्यनुयोज्योपेक्षणेन निगृह्यते १९ । अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानानुयोगो निरनुयोज्यानुयोगोC-86 नाम निग्रहस्थानं भवति, उपपन्नवादिनमप्रमादिनमनिग्रहार्हमपि निगृहीतोऽसीति यो ब्रूयात्, स एवमसद्भुतदोषोद्भावनया निगृह्यते २० । सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तोC-87 नाम निग्रहस्थानं भवति, यः प्रथमं किंचित्सिद्धान्तमभ्युपगम्य कथामुपक्रमते तत्र च सिसाधयिषितार्थसाधनाय वा परोपलम्भाय वा सिद्धान्तविरुद्धमभिधत्ते, सोऽपसिद्धान्तेन निगृह्यते, यथा मीमांसामभ्युपगम्य कश्चिदग्निहोत्रं स्वर्गसाधनमित्याह कथं पुनरग्निहोत्रक्रिया ध्वस्ता सती स्वर्गस्य साधिका भवतीत्यनुयुक्तः प्राह अनया क्रिययाराधितो महेश्वरः फलं ददाति राजादिवदिति, तस्य मीमांसानभिमतेश्वरस्वीकारा (C-84-85-86-87) - तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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