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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ३२, नैयायिक दर्शन
कि, तो घट भी नित्य हो जाओ । इस तरह से घट को नित्य मानने से वादि ने शब्द को भी नित्य मान लिया। क्योंकि घट यह तो वादि का दृष्टांत है। शब्द में अनित्यत्व सिद्ध करना यह तो वादि का पक्ष था
और बाद में शब्द में नित्यत्व मान लिया। इसलिए मूल प्रतिज्ञा की हानि हुई। इसलिए वादि प्रतिज्ञाहानि नाम के निग्रहस्थान में आ गया। यहाँ यह निग्रहस्थान दूषणाभास में दूषणबुद्धि होने रुप विप्रतिपत्ति निग्रहस्थान है।
(२) प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थान : दूसरे के द्वारा प्रतिज्ञा किये हुए अर्थ का प्रतिषेध (निषेध) करने पर भी उसी ही धर्मि में धर्मान्तर सिद्ध होना चाहिए, ऐसा बोलना वह प्रतिज्ञान्तर नाम का निग्रहस्थान है। अर्थात् प्रतिज्ञा किये हुए अर्थ का दूसरे द्वारा प्रतिषेध होने के बाद प्रतिज्ञात और खंडित हुए अर्थ में दूसरा कोई विशेषण देकर प्रतिज्ञात अर्थ का निर्देश करना, उसका नाम "प्रतिज्ञान्तर" निग्रहस्थान है। ___ जैसे कि, वादिने प्रतिज्ञा की कि, शब्द अनित्य है क्योंकि अनित्य घट में जैसे इन्द्रियग्राह्यत्व है, वैसे शब्द में भी इन्द्रियग्राह्यत्व है। अब प्रतिवादि उपर के हेतु का खंडन करता है कि, ऐन्द्रियकत्व तो सामान्य में भी है, फिर सामान्य तो नित्य पदार्थ है। इसलिए जिस में ऐन्द्रियकत्व (इन्द्रियग्राह्यत्व) हो, वह अनित्य होता है ऐसा कोई नियम नहीं है। इसके उत्तर में वादि कहता है कि, सामान्य तो सर्वगत है। इसलिए असर्वगत शब्द असर्वगत घट के समान अनित्य है। यहाँ वादि ने अलग ही प्रतिज्ञा कर ली। "शब्द अनित्य है" यह पहली प्रतिज्ञा और 'शब्द असर्वगतत्व विशेषण से युक्त होने से अनित्य है', यह दूसरी प्रतिज्ञा ।
(इस तरह से दूसरी प्रतिज्ञा करने का कोई अर्थ नहीं है। एक प्रतिज्ञा को दूसरी प्रतिज्ञा सिद्ध नहीं कर सकती है। प्रतिज्ञा को सिद्ध करने के लिए सत्य हेतु देना चाहिए।) इस अनुसार न करने से वादि अलग प्रतिज्ञा करके प्रतिज्ञान्तर नाम के निग्रहस्थान में आ जाता है । न्यायसूत्र : प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात् तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञान्तरम् ॥५-२-३॥ अर्थ स्पष्ट है।
(३) प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान : प्रतिज्ञा और हेतु का जो विरोध है, वह प्रतिज्ञाविरोध नाम का निग्रहस्थान है । अर्थात् प्रतिज्ञात अर्थ में और हेतु में विरोध हो, तो वह प्रतिज्ञाविरोध नाम का निग्रहस्थान है।
जैसे कि, गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं रुपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धेः । अर्थात् द्रव्य गुण से भिन्न है। क्योंकि रुपादि गुणो से भिन्न मालूम नहीं होता। (ये दो वाक्यो में पहला वाक्य प्रतिज्ञा बताता है और दूसरा हेतु बताता है। अब यदि द्रव्य गुण से भिन्न पदार्थ है, तो वह रुपादि गुणो से भिन्न बताना चाहिए । फिर भी अभिन्न है, ऐसा कहना उसमें स्पष्ट विरोध है। (ऐसे स्थानो पे वादि या प्रतिवादि प्रतिज्ञा विरोध नाम के निग्रहस्थान में आ गिरते है।) यदि गुण से व्यतिरिक्त (भिन्न) द्रव्य है, तो रुपादि गुणो से भिन्न नहीं लगता, ऐसा नहीं अर्थात् लगता है। (ऐसा कहना चाहिए।) और वैसे भी रुपादि गुणो से अलग नहीं लगता है, तो गुण से व्यतिरिक्त (भिन्न) द्रव्य किस तरह हो ?
इस तरह से प्रतिज्ञा से विरुद्ध कहने से पराजित किया जाता है । (न्यायसूत्र : प्रतिज्ञाहेत्वोर्विरोधः
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