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________________ २२४ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३२, नैयायिक दर्शन जाना है। के कारणभूत आश्रय (स्थल) को निग्रहस्थान कहा जाता है। (अर्थात् जिसके द्वारा परवादि का पराजय हो, उस स्थान को निग्रहस्थान कहा जाता है।) निग्रहस्थान नाम के भेद से कितने है ? (अर्थात् निग्रहस्थान कौन से है ?) प्रतिज्ञाहानि इत्यादि । हानि यानी कि त्याग, संन्यास-छुपाना । (वस्तु होते हुए भी नहीं है, ऐसा कहना।) विरोध अर्थात् हेतु की विरुद्धता । ये तीनो का द्वन्द्व समास होके, "हानिसंन्यासविरोधाः" यह पद बना हुआ है। इसलिए प्रतिज्ञा शब्द के साथ इस प्रकार से संबंध करना । प्रतिज्ञा अर्थात् पक्ष की हानि, संन्यास और विरोध है, वह प्रतिज्ञाहानिसंन्यासविरोध और प्रतिज्ञाहानिसंन्यासविरोध आदि में है जिनके वे प्रतिज्ञाहानिसंन्यासविरोधादि । उस प्रतिज्ञाहानिसंन्यासविरोधादि विशिष्ट भेद से दूसरे परवादि का निग्रह किया जाये उसे निग्रहस्थान कहा जाता है। आदि पद से निग्रहस्थान के ये तीन के सिवा दूसरे भेदो को बताते है। निग्रहस्थान सामान्य से दो प्रकार से होते है। (१) विप्रतिपत्ति निग्रहस्थान, (२) अप्रतिपत्ति निग्रहस्थान साधनाभास में साधनबुद्धि और दूषणाभास में दूषणबुद्धि होना उसे विप्रतिपत्ति कहा जाता है। तथा साधन का दूषण न बता सकना और साधन में बताये हुए दूषण का उद्धार न करना उसे अप्रतिपत्ति कहा जाता है। इस प्रकार विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति, ऐसे दो प्रकार से वादि को पराजित किया जाता है। (कहने का मतलब यह है कि, निग्रहस्थान वस्तु की रजुआत को नहीं समज सकने से या विपरित समजने से होता है। वस्तु को नहीं समजना वह अप्रतिपत्ति और वस्तु को विपरीत समजना वह विप्रतिपत्ति ।) इस तरह से कर्तव्य का स्वीकार नहीं करने से और कर्तव्य से विपरीत स्वीकार करने से अनुक्रम में अप्रतिपत्ति और विप्रतिपत्ति के भेद से बाईस निग्रहस्थान है। वह इस अनुसार (१) प्रतिज्ञाहानि, (२) प्रतिज्ञान्तर, (३) प्रतिज्ञाविरोध, (४) प्रतिज्ञासंन्यास, (५) हेत्वन्तर, (६) अर्थान्तर, (७) निरर्थक, (८) अविज्ञातार्थ, (९) अपार्थक, (१०) अप्राप्तकाल, (११) न्यून, (१२) अधिक, (१३) पुनरुक्त, (१४) अननुभाषण, (१५) अज्ञान, (१६) अप्रतिभा, (१७) विक्षेप, (१८) मतानुज्ञा, (१९) पर्यनुयोज्योपेक्षण, (२०) निरनुयोज्यानुयोग, (२१) अपसिद्धांत और (२२) हेत्वाभास । इन बाईस में अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप और पर्यनुयोज्योपेक्षण, ये पाँच अप्रतिपत्ति के भेद है और बाकी के विप्रतिपत्ति के भेद है। . तत्र हेतावनैकान्तिकीकृते प्रतिदृष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽभ्युपगच्छतः C-67प्रतिज्ञाहानिर्नाम निग्रहस्थानं भवति । अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वाद्धटवदिति साधनं वादी वदन् परेण सामान्यमैन्द्रियकमपि नित्यं दृष्टमिति हेतावनैकान्तिकीकृते यद्येवं ब्रूयात्सामान्यवद्धटोऽपि नित्यो भवत्विति स एवं ब्रुवाणः शब्दानित्यत्वप्रतिज्ञा जह्यात् । शब्दोऽपि नित्य एव स्यात् । ततः प्रतिज्ञाहान्या पराजीयते १ । (C-67)- तु० पा० प्र० प० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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