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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक ३१, नैयायिक दर्शन
जैसे कि, वादि के द्वारा “अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् " इस अनुसार कहने पर भी प्रतिवादि खंडन करता है कि "प्रयत्नानन्तरीयकत्व" यह अनित्यत्व को (सिद्ध करने में) साधन नहीं है, क्योंकि साधन वही कहा जाता है कि, जिसके बिना साध्य की प्राप्ति न हो। जब कि, यहाँ तो "प्रयत्नानन्तरीयकत्व" बिना भी विद्युतादि में अनित्यत्व मालूम होता है ? और कहीं वायु के वेग से या वनस्पति के टुकडे करते हुए उत्पन्न होनेवाला शब्द में भी प्रयत्नानन्तरीयकत्व के बिना अनित्यत्व है ही । इस प्रकार ये दोनो स्थान पे साधन “प्रयत्नानन्तरीयकत्व" न होने पर भी साध्य अनित्यत्व सिद्ध होता है ।
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(२१) (अ) अनुपलब्धिसमा जाति : अनुपलब्धि के द्वारा जो खंडन करना, उसे अनुपलब्धिसमा जाति कहा जाता है।
(यहाँ पहले एक बात समज लेना कि, नैयायिको ने शब्द को अनित्य माना है, जब कि प्रतिवादि मीमांसक शब्द को नित्य मानते है। मीमांसक, नैयायिक मत का अनुपलब्धि के द्वारा खंडन करते है । इसलिए अनुपब्धिसमा जाति बनती है ।)
जब वादि (नैयायिक) शब्द को अनित्य सिद्ध करने के लिए "प्रयत्नानन्तरीयकत्व" हेतु को रखते है । ( उपन्यास करते है ।) तब प्रतिवादि (मीमांसक) कहते है कि, प्रयत्नानन्तरीयकत्व का कार्य शब्द नहीं है। क्योंकि शब्द उच्चारण के पूर्व (पहले) होता ही है । परन्तु शब्द के उपर आवरण होने के कारण मालूम नहीं होता है।
नैयायिक : शब्द के उपर आवरण है, ऐसा आप कहते हो, तो वह आवरण क्यों दिखता नहीं है ? इसलिए आवरण की अनुपलब्धि होने के कारण उच्चारण के पूर्व (पहले) शब्द भी होता ही नहीं है ।
मीमांसक : नहीं, ऐसा नहीं है । यहाँ आप नैयायिक आवरण की जो अनुपलब्धि है, ऐसा कहते हो, तो अनुपलब्धि क्या अपने आत्मा में प्रवर्तित है या अपने आत्मा में प्रवर्तित नहीं होती है ?
यदि ऐसा कहोंगे कि, अपने आत्मा में प्रवर्तित होती है, तो जहाँ आवरण की अनुपलब्धि प्रवर्तित होती है । उस आवरण की जिस अनुसार अनुपलब्धि है उस अनुसार वह आवरण की अनुपलब्धि की भी अनुपलब्धि ही है। (अर्थात् आप नैयायिको को जिस तरह आवरण की उपलब्धि मालूम नहीं होती, उस तरह हमको (मीमांसको को) आवरण की अनुपलब्धि भी मालूम नहीं होती ।) इसलिए अनुपलब्धि की अनुपलब्धि = उपलब्धि ही हुई । इस प्रकार आवरण की उपलब्धि का अस्तित्व (सद्भाव) है। और इसलिए मिट्टी के अंदर रहे हुए मूली - कलिकादि की (मिट्टी के) आवरण के कारण उपलब्धि नहीं होती है। वैसे आवरण की उपलब्धि से बने हुए शब्द का उच्चारण से पूर्व (पहले) ग्रहण नहीं होता । अर्थात् आवरण के योग से उच्चारण से पहले शब्द की उपलब्धि नहीं होती है। (और आवरण, संयोग और विभाग आदि के कारण खिसक जाता है, तब शब्द सुनाई देता है ।)
अब यदि आप ऐसा कहोंगे कि आवरण की अनुपलब्धि अपने आत्मा में प्रवर्तित नहीं होती, तो अनुपलब्धि अपने स्वरुप से है ही नहीं, तो भी अनुपलब्धि का अभाव उपलब्धिस्वरुप है । इसलिए शब्द
(अ)
अनुपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमनुपलब्धिसमा जातिर्भवति ।। न्यायक० पृ. २० ।।
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