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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन
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जाति कहा जाता है। जैसे कि, कोई कृतक ऐसी रुई की गद्दी आदि में मृदुता है, किसी कृतक कुल्हाडी आदि में कठिनता है। इस अनुसार कृतक ऐसे कुछ घडे अनित्य होगे और कृतक ऐसे शब्द नित्य होंगे।
यहाँ जैसे मृदुत्व और कठिनत्व धर्मान्तरो के द्वारा कृतकत्वधर्म में व्यभिचार बताने का प्रयत्न किया है । वैसे अनित्यत्व और नित्यत्व धर्मान्तरो के द्वारा भी कृतकत्व में व्यभिचार बताने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार, धर्मान्तर द्वारा शब्द में अनित्यत्व का खंडन किया है, वह विकल्पसमा जाति है।
(८) (५३)साध्यसमा जाति : साध्य के साथ समानता बताकर खंडन करना, उसे साध्यसमा जाति कहा जाता है। जैसे कि, यदि जिस अनुसार घट है, उस अनुसार (कृतकत्व धर्म के कारण) शब्द भी प्राप्त हो, तो जिस अनुसार शब्द है, उस अनुसार घट भी प्राप्त हो। और इसलिए शब्द साध्य है। इस अनुसार घट भी साध्य होगा और इसलिए साध्य (घट) साध्य का (शब्द का) दृष्टांत नहीं होगा। यदि आप ऐसा कहेंगे कि घट और शब्द में इस प्रकार से समानता नहीं है। तो सुतरां घट दृष्टांत नहीं होगा, क्योंकि दोनो विलक्षण है।
(९-१०) प्राप्तिसमा - अप्राप्तिसमा जाति : प्राप्त और अप्राप्त विकल्पो के द्वारा खंडन करना, उसे अनुक्रम से प्राप्तिसमा और अप्राप्तिसमा जाति कहा जाता है। जैसे कि, जो कृतकत्व का हेतु के रुप में उपन्यास किया है, वह हेतु क्या साध्य को प्राप्त करके (साध्य को) सिद्ध करता है, कि साध्य को प्राप्त किये बिना (साध्यको) सिद्ध करता है? यदि ऐसा कहोंगे कि, हेतु साध्य को प्राप्त करके (साध्य को) सिद्ध करता है, तो विद्यमान ही हेतु और साध्य की प्राप्ति होती है और एक विद्यमान और दूसरा अविद्यमान नहीं होंगे
और (इसलिए) दोनो विद्यमान होने से, कौन किसका साधन होगा और कौन किसका साध्य होगा? (अर्थात् साध्य कौन बनेगा और साधन कौन बनेगा, वह तय करनेवाला नियामक कौन बनेगा?)
कहने का मतलब यह है कि, यदि हेतु पक्ष में साध्य के साथ हो, तो साध्य से ज्यादा उसमें कुछ विशेषता नहीं रहती है। इसलिए वह साध्य का साधक नहीं बनता है। अथवा साध्य खुद ही स्वयं अपना या हेतु का साधक क्यों न बनेंगा ? क्योंकि दोनो एकसाथ पक्ष में रहते है । इसलिए यदि हेतु पक्ष में है, तो (अ) "प्राप्तिसमा" जाति बनती है। (५३). न्यायसूत्रानुसार साध्यसमा जाति का लक्षण : साध्यसाम्यापादनेन प्रत्यवस्थानं साध्यसमा जातिर्भवति
।। न्यायक० पृ.१८ ॥ पक्ष और दृष्टांत आदि को साध्य समान बताना उसको साध्यसमा जाति कही जाती है। जैसे कि, "आत्मा, क्रियावान्, क्रियाहेतुगुणयोगात्, लोष्ठवत्" आत्मा क्रियावाला है, क्योंकि क्रियाका हेतु जो संयोगादि गुण है, उसका संबंधी होने से, लोष्ठ की तरह । इस अनुसार स्थापना हो जाने के बाद प्रतिवादि कहता है कि जैसे लोष्ठ क्रियावान् है, वैसे आत्मा भी क्रियावान् है। तो जैसे आत्मा क्रियावत्त्व रुप से साध्य है। वैसे लोष्ठ भी साध्य होना चाहिए और यदि उसको साध्य के रुप में लेंगे, तो दृष्टांत के रुप में नहीं ले सकेंगे। इस प्रकार से खण्डन करना, उसका नाम साध्यसमा जाति कहा जाता है।
पक्ष और दृष्टांत को भी पाँच अवयव के विषय होने से, अनुमेय के रुप में बताना यह भी साध्यसमा जाति कहा
जाता है। (अ) प्राप्त्यप्राप्तिविकल्पाभ्यां प्रत्यवस्थानं प्राप्त्यप्राप्तिसमे जाति भवतः ।। न्याय. पृ. १८ ।।
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