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________________ २०४ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ३१, नैयायिक दर्शन आचरण के साथ किसी जगह पे संबंध होता है और किसी जगह पे नहीं भी होता है। इसलिए वह हेतु अनैकान्तिक है।) वक्ता ने ब्राह्मणत्व को विद्या और आचरण के हेतु के रुप में नहीं बताया है। (जो ब्राह्मण में विद्या और आचरण हो वही सच्चा ब्राह्मण और जिसमें वह न हो, तो वह केवल नामका ही ब्राह्मण है। जिसका समय अनुसार उपनयन संस्कार (यज्ञोपवित जनेऊ धारण करना) न हुआ हो, उसे व्रात्य कहा जाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का देर से देर उपनयन का समय १६-२२ और २४ साल का है।) इसलिए जैसा धूम का अग्नि के साथ अव्यभिचरित संबंध है, वैसा ब्राह्मणत्व का विद्या और आचरण के साथ अव्यभिचरित संबंध मालूम नहीं होता है। इसलिए ब्राह्मण में विद्या और सदाचार है, यह तो ब्राह्मण की प्रशंसा है। परन्तु यह हेतु नहीं है। इसलिए ब्राह्मणत्व को हेतु के रुप में मानकर जो असंभवित अर्थ की कल्पना की है, वह छल है, इसलिए आपका खण्डन असत्य है। जैसे कि कोई कहे कि - "इस खेत में अन्न अच्छा पैदा होता है।" यहाँ इस वाक्य का अभिप्राय खेत की प्रशंसा में ही है। परन्तु खेत बीज के बिना, योग्य ऋतु के बिना और बरसात के बिना धान्य के ढेर उत्पन्न करता है, ऐसा अर्थ नहीं है। उसी अनुसार ब्राह्मण विद्या का और सदाचार का पात्र होना संभवित है (परन्तु) हेतु नहीं है। इतना ही उपरोक्त वाक्य का भावार्थ है। प्रशंसा और हेतु ये दोनो एक नहीं है। इसलिए प्रतिवादिने अतिसामान्य से संबंध लगाकर वक्ता के वाक्य में रहे हुए अभिप्राय का अर्थान्तर (दूसरा अर्थ) किया। वह सामान्य छल है। (३) उपचारछल : औपचारिक प्रयोग में मुख्य अर्थ की कल्पना के द्वारा जो प्रतिषेध करना, उसे उपचार छल कहा जाता है। जैसे कि, वक्ता ने कहा कि "मञ्चाः क्रोशन्ति"-यह सुनकर छलवादि खण्डन करता हुआ कहता है कि "मञ्चस्थाः पुरुषाः क्रोशन्ति, न मञ्चाः, तेषामचेतनत्वात्" अर्थात् मंच के उपर बेठे हुए पुरुष बोलते है। मंच बोलता नहीं है। क्योंकि वह अचेतन है। (यह खण्डन प्रतिवादि (छलवादि) का बिलकुल गलत है। क्योंकि वादि ने मंच शब्द का गौण अर्थ मंच के उपर बैठे हुए पुरुष ही लिया है, क्योंकि "क्रोशन" रुप अर्थ मंच में संभवित नहीं है। मंच का मुख्य अर्थ तो लकड़ी का बनाया हुआ मंच ही होता है। इसलिए वादि के अभिप्राय से विरुद्ध जाकर प्रतिवादिने मुख्य अर्थ लेकर मंच बोलते नहीं है, इस अनुसार छल किया, उसे उपचारछल कहा जाता है। अब ग्रंथकार श्री प्रथम वाक्छल के उदाहरण को कहते है। "कूपो नवोदकः" यहाँ नूतनअर्थ में "नव" शब्द का प्रयोग करने पर भी छलवादि दूषण देते है कि "कुतः एक एव कूपो नवसंख्योदकः" एक ही कुओ में नो संख्या के पानी कहाँ से? इस तरह से छल करके वादि के विधान का खंडन करता है। उसे वाक्छल कहा जाता है। (विशेष आगे देखना ।) इससे शेष दो छल के उदाहरण भी सूचित हुए जानना । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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