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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - २३, नैयायिक दर्शन
फर्क नहीं रहेगा। (और देशान्तरप्राप्ति शब्द से देशान्तरदर्शन अर्थ करेंगे तो वे दोनो में फर्क रहेगा। वह इस प्रकार से- शेषवत् अनुमान में नदी की बाढ रुप कार्य से उपरीतनवास में बरसात (कारण) का अनुमान होता है। यहाँ नदी की बाढ़ का स्थान और बरसात होने का स्थान ये दोनो में से केवल नदी की बाढ़ को देखकर बरसात का अनुमान किया जाता है । परन्तु बरसात जहाँ हुई है, उस स्थान का दर्शन नहीं होता । जब कि, सामान्यतो दृष्ट अनुमान में उदयाचल के स्थान पे देखे हुआ सूर्य कालान्तर में अस्ताचल की चूलिका में पहुँचता है, तब भी सूर्य का दर्शन होता है। इसलिए देशान्तरप्राप्ति शब्द से देशान्तरदर्शन अभिप्राय लेने से दोनो अनुमानो में भेद स्पष्ट रुप से समजा जा सकता है। उपरांत केवल "देशान्तरप्राप्ति " शब्द ही रखा जाये तो असमंजस (द्विधा) होने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि दोनो अनुमानो में देशान्तर की प्राप्ति तो होती ही नहीं है । इसलिए देशान्तरप्राप्ति का देशान्तरदर्शन मंतव्य दोनो अनुमानो में भेद को सूचित करने के लिए ग्रहण किया गया है, वह योग्य ही है ।)
यद्यपि (वैसे तो) आकाश में संचरित सूर्य की गति नेत्र के नीरिक्षण के प्रसर का अभाव होने से दीखती नहीं है, फिर भी उदयाचल (पूर्व दिशा से) कालान्तर में (दूसरे समय पे) अस्ताचल (पश्चिम दिशा की ) चूलिका आदि में होता सूर्य का दर्शन सूर्य की गति को बताता है । उपरांत, प्रयोग पहले कहा उस अनुसार से जानना । अथवा देशान्तरप्राप्ति गति का कार्य है, ऐसा लोक नहीं जानता है। इस अनुसार यहाँ कार्य-कारण भाव की विवक्षा के बिना (लोकप्रसिद्ध) दृष्टान्त दिया है। प्रयोग इस प्रकार है
"सूर्यस्य देशान्तरप्राप्तिर्गतिपूर्विका देशान्तरप्राप्तित्वात्, देवदत्तदेशान्तरप्राप्तिवत् ॥२२॥
उपमानलक्षणमाह अब ग्रन्थकार श्री उपमान का लक्षण कहते है
(मू. श्लोक.) प्रसिद्धवस्तुसाधर्म्यादप्रसिद्धस्य साधनम् ।
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B-95 उपमानं समाख्यातं यथा गौर्गवयस्तथा ।। २३ ।।
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श्लोकार्थ : प्रसिद्ध वस्तु के साधर्म्य से अप्रसिद्ध (का ज्ञान करानेवाला) साधन उपमान प्रमाण कहा जाता है। अर्थात् प्रसिद्ध वस्तु के सादृश्य से अप्रसिद्ध की सिद्धि करनेवाला उपमान प्रमाण है। जैसे कि 'जैसी गाय होती है, वैसा गवय होता है।' (अर्थात् प्रसिद्ध गाय के आधार से अप्रसिद्ध गवय का ज्ञान उपमानप्रमाण कराता है | ) ||२३||
व्याख्या-“प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानम् ( १, १, ६) " इति [ न्याय ] सूत्रम् । अत्र यत इत्यध्याहार्यम्, ततश्च प्रसिद्धेन वस्तुना गवा यत्साधर्म्यं समानधर्मत्वं तस्मात्प्रसिद्धवस्तुसाधर्म्यादप्रसिद्धस्य गवयगतस्य साध्यस्य संज्ञासंज्ञिसंबन्धस्य साधनं प्रतिपत्तिर्यतः साधर्म्यज्ञानाद् भवति तदुपमानं समाख्यातम् । साधर्म्यस्य च B - " प्रसिद्धिरागमपूर्विका । तत आगमसंसूचनायाह-यथा गौस्तथा गवय इति । गवयोऽरण्यगवयः, अयमत्र भावः । कश्चित्प्रभुणा (B-95-96 ) - तु० पा० प्र० प० ।
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