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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १७, १८, १९, नैयायिक दर्शन
होती ही है। (अर्थात् इच्छादि धर्मी तो "अहमिच्छावान्" ऐसे मानसप्रत्यक्ष से सिद्ध ही है। उसी प्रकार उसमें रहनेवाले गुणत्व या कार्यत्वरुप साधनधर्मो का भी प्रत्यक्ष हो ही जाता है। उस साधनो की पारतंत्र्यरुप साध्य के साथ व्याप्ति भी रुपादि में प्रत्यक्ष से देखी ही जाती है, कि रुपादि गुण भी है और घटादि (द्रव्य) के आश्रित भी है ।) इस तरह परतंत्रत्वरुप साध्य की व्यावृत्ति से गुणत्वरुप साधन की व्यावृत्ति भी प्रमाणान्तर से ही जान ली जाती है।
प्रश्न : पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट, ये तीनो में परस्पर क्या विशेष (भेद) है ?
उत्तर : यहाँ एक ही उदाहरण लेके तीनो में क्या विशेषता है वह बताते है। "इच्छादेः परतन्त्रा, गुणत्वात्, कार्यत्वात् वा रुपवत् ।" इच्छादि के पारतंत्र्यमात्र की प्रतिपत्ति में (ज्ञानमें) गुणत्व अथवा कार्यत्व हेतु पहले है, इसलिए पूर्ववत् अनुमान कहा जाता है। क्योंकि कारण से कार्य का अनुमान किया जाता है। जैसे कि गुणत्व हेतु से इच्छादि में पारतंत्र्य का ज्ञान किया जाता है। यहाँ हेतु पूर्व में (पहले) होने से पूर्ववत् अनुमान कहा जाता है।
गुण होने के कारण इच्छादि का पारतंत्र्य सिद्ध होते हुए, वह इच्छादि का (आत्मा के सिवा) दूसरे आश्रय का बाध होने से आत्मा ही विशेष आश्रय होने के कारण (इच्छादि की आत्मा के सिवा अन्य शरीरादि में प्रसक्ति का निषेध बताते हुए बाधक प्रमाण के द्वारा इच्छादिक के आश्रय के रुप में) आत्मा मालूम होता है। वह शेषवत् अनुमान का फल है। (सारांश में, "जो 'आत्मा' शब्द से वाच्य नहीं है, वह इच्छादि का आधार भी नहीं है।" इस व्यतिरेकव्याप्ति से इच्छादिके आधार के रुप में आत्मा की प्रमा (ज्ञान) करना वह शेषवत् अनुमान का फल है। अर्थात् पूर्ववत् अनुमान से इच्छादि का पारतंत्र्य सिद्ध होता है और शेषवत् अनुमान से इच्छादि के आधार के रुप में आत्मा की सिद्धि होती है।)
उस साध्यधर्म पारतंत्र्य के दूसरे धर्मी ऐसे रुप में प्रत्यक्षत्व होने पर भी, वहाँ इच्छादि धर्मी में सर्वदा अप्रत्यक्षत्व है । यह सामान्यतोदृष्ट अनुमान के व्यपदेशका कारण है। इसलिए "इच्छादयः परतन्त्रा, गुणत्वात्, कार्यत्वात् वा रुपवत् । यह एक ही उदाहरण तीनो प्रकार के अनुमान का है।
इसलिए इस तरह कारणादि तीन प्रकार होने से, तीन प्रकार का लिंग प्रमिति (यथार्थ ज्ञान) को उत्पन्न करने से, तत्पूर्वक (अर्थात् तीन प्रकार के लिंगपूर्वक) सत्य अनुमान होता है । इस तरह से द्वितीय व्याख्यान है।
यहाँ दो व्याख्यान में प्रथम व्याख्यान ही बहोत लोग को अध्ययन इत्यादि में इच्छित है और वहाँ पूर्ववत् आदि की व्याख्या द्वितीय व्याख्यान में जो चार प्रकार से कही हुई है, वही जानना।
अथ शास्त्रकार एव बालानामसंमोहार्थं शेषव्याख्याप्रकारानुपेक्ष्यानुमानस्य त्रिविधस्य विषयज्ञापनाय पूर्ववदादीनि पदानि व्याख्यानयन्नाह “तत्राद्यम्” इत्यादि । तत्र तेषु पूर्ववदादिष्वाद्यं पूर्ववदनुमानं किमित्याह-कारणाल्लिङ्गात्कार्यस्य लिङ्गिनोऽनुमानं ज्ञानं कार्यानुमानम्, इहानुमानप्रस्तावे,
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