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________________ १२८ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १३, नैयायिक दर्शन मततुल्यता । उभयेऽप्येते तपस्विनोऽभिधीयन्ते । ते च शैवादिभेदेन चतुर्धा भवन्ति । तदुक्तम्“आधारभस्मकौपीनजटायज्ञोपवीतिनः । स्वस्वाचारादिभेदेन चतुर्धा स्युस्तपस्विनः ।। १ ।। शैवाः पाशुपताश्चैव महाव्रतधरास्तथा । तुर्याः कालमुखा मुख्या भेदा एते तपस्विनाम् ।। २ ।।” । तेषामन्तर्भेदा भरटभक्तलैङ्गिकतापसादयो भवन्ति । भरटादीनां व्रतग्रहणे ब्राह्मणादिवर्णनियमो नास्ति । यस्तु तु शिवे भक्तिः स व्रती भरटादिर्भवेत् । परं शास्त्रेषु नैयायिकाः सदा शिवभक्तत्वाच्छैवा इत्युच्यन्ते, वैशेषिकास्तु पाशुपता इति । तेन नैयायिकशासनं शैवमाख्यायते, वैशेषिकदर्शनं च पाशुपतमिति । इदं मया यथाश्रुतं यथादृष्टं चात्राभिदधे । तत्तद्विशेषस्तु तद्ग्रन्थेभ्यो विज्ञेयः ।। १२ ।। टीकाका भावानुवाद : यह लिंग, वेष, देवादि का स्वरुप है। वे सब वैशेषिकमत में भी जानना, क्योंकि नैयायिको और वैशेषिको में परस्पर प्रमाण और तत्त्वो की संख्या में भेद होने पर भी अन्योन्य तत्त्वो का अंतर्भाव हो जाने से बहोत अल्प ही भेद (भिन्नता) है। इसलिए नैयायिको तथा वैशेषिको के मत की प्रायः तुल्यता है। दोनो ही तपस्वी कहे जाते है । वे शैवादि के भेद से चार प्रकार के है। इसलिए कहा है कि, ___ "आधार (रहने का स्थान, आसान आदि) भस्म, लंगोट, जटा और जनेऊ (यज्ञोपवित) को धारण करनेवाले तपस्वी अपने-अपने आचारादि की भिन्नता के कारण चार प्रकार के है ।।१।। इन तपस्वीयो के शैव, पाशुपत, महाव्रतधर तथा चौथा कालमुख (ऐसे) मुख्य चार भेद है ।।२।। उनके आंतर्भेद भरट, भक्त,लैंगिक, तापसादि है। भरटादि नियम व्रत ग्रहण में ब्राह्मणादि वर्ण का नियम नहीं है। परन्तु जिनकी शिव में भक्ति है, वे व्रत लेकर भरटादि होते है। ___ परन्तु नैयायिक हमेशा शिव के आराधक भक्त होने से शास्त्रो में उनको "शैव" कहा जाता है। परन्तु वैशेषिको को “पाशुपत" कहा जाता है। इसलिए नैयायिक शासन "शैव शासन" कहा जाता है और वैशेषिक दर्शन "पाशुपत शासन" कहा जाता है। वह मेरे द्वारा जिस अनुसार परंपरा से सुना गया और जिस अनुसार देखा गया है, उसी अनुसार कहा गया है। परन्तु उस उस विषय में जिसको विशेष जानना हो, उनको उस ग्रंथो से जानना ॥१२॥ अथ पूर्वप्रतिज्ञातं नैयायिकमतसंक्षेपमेवाह - अब पूर्व की प्रतिज्ञानुसार नैयायिक मत के संक्षेप को ग्रंथकारश्री कहते है। (मूल श्लो०) अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिवः । विभुर्नित्यैकसर्वज्ञो नित्यबुद्धिसमाश्रयः ।। १३ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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