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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, संपादकीय
यथार्थ बनाना अति आवश्यक हैं । इसके लिए श्री जिनागमों का और पूर्वमहर्षियों के प्रकरण ग्रंथो का अभ्यास करना अति आवश्यक हैं । उस अभ्यास के लिए संस्कृत, व्याकरण, न्याय और दर्शनों की मान्यताओं का बोध भी आवश्यक हैं । केवल संस्कृत, व्याकरण के ज्ञान से ग्रंथो के अभ्यास में गति आये, वह संभव नहीं है, यह भी याद रखना आवश्यक हैं । इसलिए ग्रंथवाचन-परिशीलन में गतिप्रगति साधने के लिए न्याय और दर्शनों का बोध प्राप्त करना आवश्यक है। तदुपरांत, वस्तु के सर्वांगीण स्वरुप को समजे बिना ज्ञान सम्यग् नहीं बन सकता है और वस्तु के सर्वांगीण स्वरुप से ज्ञात बनने के लिए स्वदर्शन की तरह अन्य प्रत्येक दर्शनों की मान्यता जाननी भी आवश्यक है । तदुपरांत, संस्कृत भाषा का और न्याय की शैली का परिचय प्राप्त होने के बाद भी ग्रंथवाचन में कही अवरोध आता हो और बोध परिपूर्ण न बनता हो, ऐसा अनुभव अभ्यासु वर्ग को होता ही है, इसलिए ये दोनों के परिचय के साथ साथ दार्शनिक मान्यताओं का परिचय भी प्राप्त करना आवश्यक हैं ।
यहाँ एक बात याद रखनी अत्यंत आवश्यक है कि, दार्शनिक मान्यताओं की जानकारी शुष्कवाद के लिए या अहंकार के पोषण के लिए पाने की नहीं है । परन्तु तत्त्व के यथार्थ बोध और उसका अनुसरण करके आत्मशुद्धि करने के लिए यह जानकारी आवश्यक हैं।
इसी परिप्रेक्ष्य में वि.सं. २०५५ के वर्ष में “षड्दर्शन समुञ्चय" ग्रंथ का अभ्यास और उसकी टिप्पणी तैयार की थी, तैयार हुई टिप्पणीयों की अन्य अभ्यासुवर्ग के लिए उपयोगिता मालूम होने से षड्दर्शन समुच्चय ग्रंथ के भावानुवाद रुप से तैयार करने का प्रारंभ वि.सं. २०६० के वर्ष में किया गया । उसमें पूज्यपाद गुरुदेव और पू. गुरुजी की महती कृपा प्राप्त हुई । सुविशाल गच्छनायक पू.आ.भ.श्री.वि. हेमभूषणसूरीश्वरजी महाराजा की पावन निश्रा एवं आशीर्वाद और प्रवचन-प्रभावक पू.आ.भ.श्री. वि.कीर्तियशसूरीश्वरजी महाराजा का अमूल्य मार्गदर्शन प्राप्त हुआ । कार्य की रुपरेखा निश्चित करके ग्रंथ को अनेकविध दार्शनिक सामग्री से संपन्न बनाने का पुरुषार्थ किया । उसके परिपाक स्वरूप वि.सं. २०६१ में प्रस्तुत ग्रंथ दो विभाग में (गुर्जरभाषा में) सन्मार्ग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ था । _ वि.सं. २०६६ के वर्ष में न्यायाचार्य पं. मेहुलभाई शास्त्री नव्यन्याय का अभ्यास कराने आते थे, तब उन्हों ने ये दों ग्रंथ देखें । उनको ये ग्रंथ गुजरात के सिवा अन्य अभ्यासु वर्ग को अधिक उपयोगी हो इसलिए हिन्दी भाषा में अनुवादित करने जैसे लगे । उन्हों ने प्रेरणा की । प्रवचन प्रभावक पू.आ.भ.श्रीजी आदि पूज्यो के साथ परामर्श करके, उनके मार्गदर्शन अनुसार हिन्दी भाषा में अनुवादित करने का निर्णय किया । ग्रंथ जब अन्य भाषा में पुन: प्रकाशित होता ही है, तो उसे अधिक दार्शनिक पदार्थो से समृद्ध बनाना, ऐसा निर्णय किया गया और पूर्व प्रकाशन से दूसरे अनेक नये विषयो को समाविष्ट करने का प्रयत्न भी किया । (जिसकी जानकारी आगे बताई जायेगी ।) यहाँ एक स्पष्टता हैं कि, प्रस्तुत प्रकाशन में हमारा उदात्त आशय यह है कि, समर्थ शास्त्रकार शिरोमणी पू.आ.भ.श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा
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