________________
१००
बौद्धदर्शन का विशेषार्थ
यद्वाऽऽलीयते उपनिबध्यते कारणभावेन सर्वधर्मेषु इत्यालयः । (त्रिंशिका भाष्य पृ-१८) (१) आलय का अर्थ है स्थान । जितने क्लेशोत्पादक धर्मो के बीज है वह सबका स्थान है। वे बीज आलयविज्ञान में
एक रहे हुआ है। कालान्तर में विज्ञानरुप में बाहर आकर जगत के व्यवहार का निर्वाह करता है। (२) आलय विज्ञान से विश्व के समग्र धर्म (= पदार्थ) उत्पन्न होते है। इससे समस्त धर्म कार्यरुप से संबद्ध रहते है।
इसलिए विज्ञान का आलय (लय होने का स्थान) है। आलयविज्ञान सर्व धर्मो का कारण है। इसलिये कारणरुप से सर्वधर्मो में अनुस्यूत (पिरोया हुआ) होने के कारण भी वह आलय कहा जाता है।
ये तीन व्युत्पत्ति के समर्थन में कहा है कि"सर्वधर्मा हि आलीना विज्ञाने तेषु तत्तथा । अन्योन्याभावेन हेतुभावेन सर्वदा ॥ अर्थात् विश्व के समस्त धर्म फलरुप होने से विज्ञान में आलीन (सम्बद्ध) होते है। तथा आलयविज्ञान भी धर्मो के साथ सर्वदा हेतु होने से सम्बद्ध रहते है। अर्थात् विश्व के समस्त पदार्थो की उत्पत्ति "आलयविज्ञान" से होती है। यह विज्ञान हेतुरुप है और समग्रधर्म फलरुप है।
आलयविज्ञान में अन्तर्निहित बीजो का फल वर्तमान संस्कार के रुप में लक्षित होता है । समग्र संसार तथा उसका अनुभव सात विज्ञानों के द्वारा हमको प्राप्त होता है। वे सब अपने पूर्वकालीन बीजो में से उत्पन्न होते है और वर्तमान संस्कारो तथा अनुभवो से नये-नये बीजो की उत्पत्ति होती है । जो भविष्य में बीजरुप से आलयविज्ञान में अपने को अन्तर्निहित करता है।
नयविज्ञान का स्वरुप : आलयविज्ञान का स्वरुप समुद्र के दष्टांत से अच्छी तरह से समजा जा सके वैसा है। पवन के झोंको से समुद्र में सतत तरंग पैदा होते है । वे कभी विराम नहीं पाते है । (कम-ज्यादा हो ऐसा बन सकता है। परन्तु तरंग विराम नहीं पाते है।) इस प्रकार "आलयविज्ञान" में भी विषयरुप वायु के झोंके से चित्रविचित्र विज्ञानरुप तरंग उठते है और सतत चालुं रहते है। "आलयविज्ञान" समुद्रस्थानीय है। विषय पवन के स्थान पे है । तथा (सप्तविध) विज्ञान तरंगो का प्रतीक है। लंकावतार सूत्र में कहा है कि...
तरंगा उदधेर्यद्वत् पवनप्रत्ययेरिताः । नृत्यमानाः प्रवर्तन्ते व्युच्छेदश्च न विद्यते ॥९९॥आलयौघस्तथा नित्यं विषयपवनेरितः । चित्रस्तरङ्गविज्ञानैर्नृत्यमानः प्रवर्तते ॥१००॥
जिस प्रकार से समुद्र तथा तरंगो में भेद नहीं है, उसी प्रकार से "आलयविज्ञान" और अन्य सात विज्ञानो में विज्ञानाकार से भेद नहीं है।
आचार्य वसुबन्धुने भी आलयविज्ञान की वृत्ति जलप्रवाह के समान बताई है। (तच्च वर्तते स्रोतसौधवत् त्रिंशिका का.४ ) जिस प्रकार से जलप्रवाह तृण, काष्ठ, गोमय आदि नाना (विभिन्न) पदार्थो को खींचते खींचते
आगे बढता है। उसी प्रकार से आलयविज्ञान भी पुण्य-अपुण्य अनेक कर्मो की वासना से अनुगत स्पर्श, संज्ञावेदना आदि चैतधर्मो को खींचता-खींचता आगे बढ़ता है। जब तक यह संसार है तब तक "आलयविज्ञान" का विराम नहीं है।
वह आलयविज्ञान आत्मा का प्रतिनिधि माना जाता है। परन्तु दोनो में स्पष्ट अंतर भी विद्यमान है। उसकी अवहेलना ( उपेक्षा ) भी की जा सके ऐसी नहीं है। आत्मा अपरिवर्तनशील रहता है । सदा एकाकार एकरस । परन्तु आलयविज्ञान परिवर्तनशील होता है। अन्य विज्ञान क्रियाशील रहे अथवा अपना कार्य बंद भी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org