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________________ षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ११, बोद्धदर्शन उपरांत, शेष सात अनुपलब्धि भी धर्मबिंदु (न्यायबिंदु) इत्यादिक शास्त्रो में प्रतिपादित की हुई है। वे सात का (उपरोक्त) चार में अन्तर्भाव हो जाता है। क्योंकि, वे सात इस चार के प्रतिभेदरूप है, इसलिये यहाँ पृथक् (अलग) नहीं कही है। ७८ ★ स्वभाव हेतु : यथा वृक्षोऽयं शिंशपात्वात् । यह वृक्ष है। क्योंकि शिंशपा (एक प्रकार का वृक्ष) है । ★ कार्य हेतु : यथा अग्निरत्र धूमात् । यहाँ अग्नि है। क्योंकि ( अग्नि का) कार्य धूम है । यह अनुपलब्धि इत्यादिक तीन हेतुओ में तादात्म्य और तदुत्पत्तिसंबंध के कारण अविनाभाव का निश्चय होता है। उसमें प्रथम विरुद्धोपलब्धि, अंतिम स्वभावानुपलब्धि तथा स्वभावहेतु का तादात्म्यसंबंध है। मध्य के विरुद्धकार्योपलब्धि, कारणानुपलब्धि तथा कार्यहेतु का तदुत्पत्ति संबंध है । यह अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्ति से ही व्याप्त है तथा तादात्म्य और तदुत्पत्ति अनुपलब्धि, स्वभाव और कार्य में ही विद्यमान है। इसलिये वे तीन ही लिंग है, उसके सिवा अन्य नहीं है। इसलिये तादात्म्य और तदुत्पत्ति के संबंध से विकल ऐसे अनुपलब्धि, स्वभाव और कार्य से अतिरिक्त सब अर्थो की हेत्वाभासता जानना । इसलिये संयोगि समवायि इत्यादि वैशेषिकादि द्वारा कल्पित (हेतु वास्तव में) हेतु नहीं है, क्योंकि उसमें व्यभिचार का संभव है । उपरांत, कारण से कार्य के अनुमान में व्यभिचार होने से (बौद्धोंने) नहीं माना है । (क्योंकि, कारण होने पर भी कार्य दिखता नहीं है ।) उपरांत, बौद्धो के द्वारा रस से समानकालिन अर्थात् रस का अनुभव करने से, उसके समानकालीन रुप का अनुमान तथा समग्र हेतु से कार्योत्पादक अनुमान का स्वीकार किया गया है। वे दोनो का अन्तर्भाव भी स्वभाव हेतु अनुमान में ही हो जाता है। जैसे कि.... पहले रुप क्षण रुपांतर को उत्पन्न करने में समर्थ है। क्योंकि, उसने ऐसा रस उत्पन्न किया है, जैसे कि पहले उपलब्ध रुप । इस प्रकार से पूर्व रूप से रुपांतर को उत्पन्न करने के सामर्थ्य का अनुमान स्वभावहेतु से ही किया गया है। इस प्रतिबंधको से रहित बीजादि सामग्री अपना कार्य उत्पन्न करने में योग्यता से युक्त है। क्योंकि समग्र है। जैसे कि पहले देखी हुई बीजादि सामग्री अपने कार्य को उत्पन्न करती थी। इस प्रकार यहाँ भी स्वभाव हेतु से ही योग्यता का अनुमान किया गया है। इस तरह अनुमानो की स्वभावहेतु से ही उत्पत्ति माननी चाहिए। परन्तु कारण से होनेवाले कार्यानुमानरुप नहीं ||१०|| अथानुपलब्ध्यादिभेदेन त्रिविधस्यापि लिंगस्य यानि त्रीणि रुपाणि भवन्ति, तान्येवाह अब अनुपलब्धि आदि भेद से तीन प्रकार के हेतुओ के जो तीन रुप होते है, उसे ही कहते है । (मूल श्लो०) रूपाणि पक्षधर्मत्वं सपक्षे विद्यमानता । विपक्षे नास्तिता हेतोरेवं त्रीणि विभाव्यताम् ।।११।। (अ) "त्रैरुप्यं पुनर्लिङ्ग्ङ्गस्यानुमेये सत्त्वमेव, सपक्ष एव सत्वम्, असपक्षे चासत्त्वमेव निष्टिशतम् ।। " न्यायबि० २ / ५ ।। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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