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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ९, बोद्धदर्शन
समाधान : (जगत में) प्रत्यक्ष और परोक्ष से भिन्न कोई अन्य प्रमेय नहीं है और प्रमेयरहित प्रमाण का प्रामाण्य संभवित नहीं होता है। तथा "जिसके द्वारा अर्थ (प्रमेय) का ज्ञान किया जाता है उसे प्रमाण कहा जाता है।" इस व्युत्पत्ति से प्रमेय सहित प्रमाण में ही प्रमाणता रहती है, ऐसा सिद्ध होता है। इस बातको ज्यादा स्पष्ट करने के लिए उदाहरण सहित प्रयोग बताते है - यद् अविद्यमानप्रमेयं न तत्प्रमाणं यथा केशोडंकादिज्ञानम् । अर्थात् जिस ज्ञान का प्रमेय (जगत में) विद्यमान नहीं है, वह ज्ञान प्रमाण नहीं है। जैसे कि स्वच्छ आकाश में (धूप के कारण) दिखते बाल और मच्छर के आकारवाला ज्ञान ।
[कहने का मतलब यह है कि, 'प्रमातुं योग्य इति प्रमेयः' तथा 'प्रमीयतेऽनेनार्थ इति प्रमाणम्' अर्थात् जो प्रमा के (ज्ञान करने) योग्य हो उसे प्रमेय कहा जाता है। तथा जिसके द्वारा अर्थ (प्रमेय) मालूम होता (प्रतीत होता) है, उसे प्रमाण कहा जाता है। इस व्युत्पत्ति से सप्रमेय प्रमाण का प्रामाण्य स्थित होता है। प्रमेयरहित प्रमाण में प्रामाण्य नहीं है। इसलिये आकाश में बाल और मच्छररुप प्रमेय न होने पर भी बाल-मच्छरवाले आकाश का ज्ञान हो वह अप्रमाणरुप है।) तथा प्रत्यक्ष और अनुमान से अतिरिक्त आगमादि प्रमाणो का प्रमेय (विषय) विद्यमान नहीं है । (इससे वह प्रमाण नहीं हो सकते) यह हेतु कारणानुपलब्धि है। अर्थात् प्रमेय (विषय) रहित (प्रत्यक्ष और अनुमान से अतिरिक्त) प्रमाण उपलब्धि (ज्ञान) के कारण बनता नहीं है। क्योंकि, प्रमेय साक्षात् या परंपरा से प्रमाण का कारण बनता है। (इसलिये प्रत्यक्ष और परोक्ष के सिवा अन्य प्रमेय जगत में विद्यमान न होने से आगमादिप्रमाणो का विषय (प्रमेय) परोक्ष नहि मानेंगे तो प्रमेयरहित वह आगमादि प्रमाण अप्रमाणरुप बन जायेंगे और आगमादि प्रमाणो के विषय को परोक्ष मानोंगे तो परोक्षार्थविषयक अनुमान में (पहले कहे अनुसार) अन्तर्भाव हो जायेगा।)
इसलिये कहा है कि - जिसका जिसके साथ अन्वय - व्यतिरेक नहीं है, वह उसका कारण नहीं बन सकता तथा जो पदार्थ ज्ञान का कारण नहीं है, वह ज्ञान का विषय नहीं बन सकता । (इस प्रकार प्रमाण में कारणभूत प्रमेय की अनुपलब्धि होने के कारण आगमादि में प्रमाणता का निषेध करने में कारणानुपलब्धि हेतु बनता है। अर्थात् आगमादि में प्रमाणता का निषेध कारणानुपलब्धि रुप हेतु से किया गया है।)
प्रत्यक्ष-परोक्ष से अतिरिक्त प्रमेय नहीं है, वह तो प्रत्यक्ष से ही सिद्ध होता है। सामने रहे हुए पदार्थ के सामर्थ्य से उत्पन्न होता प्रत्यक्ष, पदार्थ में रहे हुए स्वरुप का नियत प्रतिभास को अवभासन करता होने से वह पदार्थ के प्रत्यक्ष व्यवहार का कारण बनता है। अर्थात् कहने का आशय यह है कि, प्रत्यक्ष सामने रहे हुओ पदार्थ के सामर्थ्य से उत्पन्न होता है और वह पदार्थ के आकारवाला होता है। इसलिये उसका प्रतिभास वह पदार्थ के स्वरुप में ही नियत होके वह पदार्थ में प्रत्यक्ष व्यवहार कर देता है। (जैसे कि, सामने रहे हुए घट के सामर्थ्य से उत्पन्न होता प्रत्यक्ष घट के आकारवाला होता है। इसलिये 'यह घट है' इस प्रकार से वह घट पदार्थ के स्वरुप में नियत हो जाता है और घटपदार्थ में ही प्रत्यक्षव्यवहार कराता है।
उपरांत, (प्रत्यक्ष मात्र प्रत्यक्ष का व्यवहार कराके अटक नहीं जाता, परंतु) प्रत्यक्ष विषय से अन्य विषयो का व्यवच्छेद भी करता है और प्रत्यक्ष से व्यवच्छेद हुए अन्यविषयो का अन्तर्भाव परोक्षविषयो के समूह
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