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________________ ६४ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ९, बोद्धदर्शन महानसीय धूम से पर्वतीयवह्नि का अनुमान हो जाने की आपत्ति आयेगी। क्योंकि, धर्मि के साथ असंबद्ध लिंग से भी धर्मि का ज्ञान अनुमान होता है, ऐसा मानने में प्रत्यासत्ति के नियमन का अभाव हो जाता है। अर्थात् पर्वतीय धूम-पर्वतीय वह्नि प्रत्यासत्ति (निकटता) का नियम नहीं रहेगा। (नियम के अभाव से महानसीय धूम से भी पर्वतीय वह्नि का अनुमान हो जाने की आपत्ति आयेगी। उपरांत नियत प्रत्यासत्ति के नियम बिना एक महानसीयधूम से ही पर्वतीयवह्नि, चत्वरीयवह्नि, गौष्ठीयवह्नि इत्यादि तमाम वह्नि का अनुमान हो जाने की आपत्ति आयेगी । अर्थात् एक ही लिंग सर्वत्र साध्य के ज्ञान में कारण बन जाने की आपत्ति आयेगी। इससे अपने साध्य के साथ संबद्ध (अर्थात् अविनाभाव रखनेवाला) तथा नियत धर्मीमें विद्यमानलिंग से होनेवाले जितने भी सम्यग्विकल्प है उसका अनुमान में अन्तर्भाव हो जाता है। क्योंकि, "अविनाभावि लिंग से लिंगी (साध्य) का ज्ञान होता है" उसे अनुमान कहा जाता है। यह अनुमान का लक्षण है। तथा प्रयोग इस अनुसार है - यद् अप्रत्यक्षं तद् अनुमानान्तर्भूतं यथा लिंगबलभावि । अर्थात् जो अप्रत्यक्ष है उसका अनुमान में अन्तर्भाव होता है। जैसे कि, लिंग के बल से होनेवाला अप्रत्यक्षलिंगी का ज्ञान अनुमान माना जाता है। (इस तरह अप्रत्यक्षज्ञान का अनुमान में अन्तर्भाव होता है।) उपरांत, अप्रत्यक्ष शब्दादि प्रमाणो का भी अनुमान में अन्तर्भाव हो जाता है। क्योंकि, शब्दादिरुप आगमज्ञान भी अप्रत्यक्ष होता है और प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण अनुमान हाने से शब्दादिरुप आगमज्ञान का भी अनुमान में अन्तर्भाव हो जाता है। इस (शब्दादि प्रमाण को अनुमान में अन्तर्भाव मानने में) स्वभाव हेतु है। उपरांत, जिसका जिसमें अन्तर्भाव होता है, उसका उससे बहिर्भाव नहीं होता । जैसे कि, प्रसिद्ध ऐसे अप्रत्यक्षज्ञान का अनुमान में अन्तर्भाव होता है इसलिये अप्रत्यक्ष ऐसे शब्दादिप्रमाणो का भी अनुमान में अन्तर्भाव होता है परन्तु बहिर्भाव नहीं होता। इस प्रकार अंतर्भाव स्वभाव विरुद्धोपलब्धि स्वरुप है। अर्थात् प्रत्यक्ष से अन्यप्रमाण अनुमान है। इस तरह स्वभावविरुद्ध उपलब्धि से प्रत्यक्ष के सिवा दूसरे अप्रत्यक्ष शब्दादिज्ञानो का अनुमान में अन्तर्भाव हो जाता है। क्योंकि अन्तर्भाव और बहिर्भाव एक दूसरे का परिहार करनेवाले होने से दोनों विरोधी है। (अर्थात् प्रत्यक्षपदार्थ विषयक ज्ञान और परोक्षपदार्थ विषयक ज्ञान परस्पर का परिहार करते है, इसलिए विरोधी है । इसलिये वे दोनो का एक दूसरे में अन्तर्भाव नहीं होता । उसी प्रकार शब्दादिप्रमाण अप्रत्यक्षपदार्थ विषयक होने के कारण उसका अनुमान में अन्तर्भाव होता है। इससे शब्दादि प्रमाणो का अन्तर्भाव अनुमान में है परन्तु प्रत्यक्ष में बहिर्भाव है।) आह परः । भवतु परोक्षविषयस्य प्रमाणस्यानुमानेऽन्तर्भावः । अर्थान्तरविषयस्य च शब्दादेस्तस्यान्तर्भावो न युक्त इति चैन, प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यामन्यस्य प्रमेयस्यार्थस्याभावात्, प्रमेयरहितस्य च प्रमाणस्य प्रामाण्यासम्भवात् । प्रमीयतेऽनेनार्थ इति प्रमाणमिति व्युत्पत्त्या, सप्रमेयस्यैव तस्य प्रमाणत्वव्यवस्थितेः । तथाहि-यदविद्यमानप्रमेयं न तत्प्रमाणं, यथा केशोंडुकादिज्ञानम् । अविद्यमानप्रमेयं च प्रमाणद्वयातिरिक्तविषयतयाभ्युपगम्यमानं प्रमाणान्तरमिति कारणानुपलब्धिः, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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