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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ७, बोद्धदर्शन जो (घटादिका) विनश्वर स्वभाव है, वह घटादिकी उत्पत्ति के प्रथम समय में भी वही स्वरुप में ही होता है। अर्थात् घटादि उत्पत्ति के प्रथम समयमें भी विनश्वर स्वभाववाला होता है। जैसे कि, अंत्यक्षणवर्ति घट का विनश्वरस्वभाव होता है। कहने का मतलब यह है कि, घटादिका अंतिम समय में विनश्वर स्वभाव हो तो उत्पत्ति के प्रथम समय में वह स्वभाव निश्चित होना चाहिए । क्योंकि उत्पत्ति के प्रथम समय में विनश्वरस्वभाव था तब ही अंतिम समय में आया न ? यदि उत्पत्ति के प्रथम समय में भी विनश्वरस्वभाव नहीं मानोंगें तो अंतिम समय में वह स्वभाव किस तरह आ गया? ऐसा प्रश्न उपस्थित होगा। इससे उत्पत्ति के प्रथम समय में भी विनश्वर स्वभाव होता है। वही अंतिम समय में भी होता है। ऐसा मानना ही पडेगा। इसी प्रकार जगत के समस्त रुप-रसादि भी अंत में विनश्वर है और वह विनश्वर स्वभाव रुपादि के उदय से आरंभ करके ही होते है। इसलिये इस अनुसार विनाशकसामग्री अकिंचित्कर बन जाती है और विनश्वर स्वभाव स्वरुप अपने स्वभाव से ही अनित्यपदार्थो की उत्पत्ति होती है और पलभर रहकर नष्ट हो जाते है। अर्थात् विनश्वर स्वभावरुप स्वकारण से ही अनित्य पदार्थ उत्पन्न होकर क्षणभर रहकर नष्ट हो जाते है। शंका : यदि पदार्थ क्षण में नाश होनेवाले है तो किस प्रकार पदार्थ को देखकर “वह यही है" ऐसा ज्ञान होता है? कहने का मतलब यह है कि पदार्थ क्षण में नाश होता हो तो, थोडे समय पहले देखे गये घट में "यह वही घट है" ऐसा ज्ञान किस तरह होता है ? क्योंकि थोडे समय पहले देखा हुआ घट तो नष्ट हो गया था। समाधान : निरन्तर सदृश अपर-अपर क्षण निरीक्षण करनेवाले चैतन्य के उदय से तथा अविद्या के अनुबंध से जैसे पूर्वक्षण के विनाश समय में ही दीपककी ज्योत में दूसरी उसके समान ज्योत उदित होती है। (तो भी "वह यही दीपकलिका (ज्योत) है" ऐसा ज्ञान होता है।) वैसे क्षण के विनाश बाद, उस क्षण के समान दूसरी क्षण का उदय होता है, फिर भी 'यह वही है' ऐसा ज्ञान होता है। इस प्रकार बारबार समान आकारवाली क्षण की परंपरा को देखते, समानाकारज्ञानकी परंपरा के दीर्घकाल के परिचय के परिणाम से तथा सतत समान आकारवाली क्षणो के उदय से पूर्वक्षणो का अत्यंत उच्छेद होने पर भी, "यह वही है" ऐसा अध्यवसाय एकाएक (अचानक) पैदा होता है। (परन्तु वह भ्रम है, क्योंकि..) जैसे एकबार काटे हुओ नाखून - केश (बाल) का समूह, पुनः उत्पन्न होगा तब नाखून-केश के समूह में भी "वह यही है" ऐसा ज्ञान होता है। परन्तु वह भ्रम है। इससे क्षणविनश्वर पदार्थ होते है, फिर भी एक क्षण के विनाश के साथ दूसरी क्षण समान आकारवाली उत्पन्न होती है। इसलिए "वह यही है" ऐसा ज्ञान होता है। परन्तु उससे पदार्थो के क्षणविनश्वरत्व का हनन नहीं होता। इस वस्तु को सज्जन (शंकाकार) द्वारा क्यों नहीं सोचा जाता ? इसलिये सिद्ध होता है कि...... "यत्सत्तक्षणिकम्" अर्थात् "जो सत् है वह क्षणिक है।" इससे "सर्व संस्कार क्षणिक है।" यह हमारा कहा हुआ युक्तियुक्त है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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