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________________ ४८ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक -७, बोद्धदर्शन रहकर नष्ट हो जाता है । इस अनुसार बौद्धो का कहना है (इस विषय में बौद्धो का तर्क है कि....) अपने कारणो से उत्पन्न होता पदार्थ, क्या विनाश के स्वभाववाला उत्पन्न होता है कि अविनश्वर स्वभाववाला उत्पन्न होता है ? यदि "अविनश्वर स्वभाववाले पदार्थ उत्पन्न होते है।" ऐसा मानेगें तो युगपद् से और क्रम से होनेवाली अर्थक्रिया स्वरुप व्यापक का अभाव होने से व्याप्य ऐसे पदार्थ का भी अभाव हो जायेगा। (वस्तु की अपनी जो क्रिया हो, कि जिससे वस्तु पहचानी जाती हो, उसे अर्थक्रिया कहा जाता है।) वह इस अनुसार जिस में अर्थक्रियाकारित्व हो वह वस्तु परमार्थ से सत् है। अर्थक्रिया में प्रवर्तित नित्यपदार्थ क्या क्रम से प्रवर्तित है या युगपद् से प्रवर्तित है ? अर्थात् नित्यपदार्थ अर्थक्रिया क्रम से करते है कि युगपद् करते है? नित्यपदार्थ क्रम से अर्थक्रिया नहीं करता। क्योंकि, (यदि वह क्रम से अर्थक्रिया करता है, ऐसा कहोंगें तो) प्रश्न होगा कि, एक अर्थक्रिया के काल में दूसरी अर्थक्रिया करने का स्वभाव उसका होता है या नहीं? ___ यदि ऐसा कहेंगे कि "एक अर्थक्रिया के काल में दूसरी अर्थक्रिया करने का स्वभाव होता है।" तो प्रश्न होगा कि क्रम से कैसे करते है ? अर्थात् दो अर्थक्रियाओ को एकसाथ करने का स्वभाव सिद्ध होने से क्रम से अर्थक्रिया करते है, यह बात उड जाती है। __ (नित्यवादि की मान्यता है कि... नित्य में यद्यपि सर्व अर्थक्रियाएं करने का स्वभाव सदा विद्यमान होता है। परन्तु जो-जो कार्यो के उत्पादक अन्य सहकारी कारण जब जब मिल जाते है। तब नित्य तत् तत् कार्य को उत्पन्न कर देता है। इस प्रकार सहकारी कारणो के क्रम से नित्यपदार्थ भी क्रम से अर्थक्रिया करते है। सहकारी कारण तो अनित्य है, इससे उसका सन्निधान क्रम से ही हुआ करता होता है। यह नित्यवादि तर्क करते है कि,) नित्य तो युगपद् अर्थक्रिया करने के लिये समर्थ है। परन्तु कारणसामग्री अनित्य होने से क्रम से सन्निधान होने के कारण नित्य में क्रम से अर्थक्रिया होती है - तब क्षणिकवादि प्रश्न करते है कि उस सहकारी से वह नित्यपदार्थ में क्या कोई अतिशय किया जाता है या नहि ? यदि आप कहेंगे कि सहकारी से नित्यपदार्थ में अतिशय होता है, तो हमारा प्रश्न है कि.. सहकारि द्वारा नित्य में अतिशय किया जाता है, तब पहले के स्वभाव के परित्याग द्वारा किया जाता है या परित्याग किये बिना किया जाता है ? यदि आप कहेंगे कि पूर्वस्वभाव के त्यागपूर्वक सहकारी नित्य में अतिशय करता है तो उससे मनमें जिसका चिन्तन भी न किया हो ऐसी अनित्यत्व की आपत्ति आयेगी। क्योंकि उसके अपने नित्यस्वभाव का सहकारि के सन्निधान से त्याग किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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