SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - ४, बौद्धदर्शन टीकाका भावानुवाद : धर्म, बुद्ध और संघ बौद्धदर्शन के तीन रत्न है। (कि जिनको बौद्धदर्शन की सफलता मानी जाती है।) बौद्धदर्शन ऊपर आनेवाले विघ्नो का नाश करनेवाली तारादेवी है। (आगे बताये वे) विपश्यादि सातबुद्ध कंठ में तीन रेखाएं अंकित करते है तथा सर्वज्ञ देवता कहलाते है। उपरांत बुद्ध, सुगत, धर्मधातु इत्यादि उनके नाम है। उनका प्रासाद बुद्ध के अंडक की संज्ञावाला वर्तुल है। प्रासाद (धर्मस्थान) को “बुद्धांडक" कहते है। भिक्षु, सौगत, शाक्य, शौद्धोदनि, सुगत, ताथागत, शून्यवादि इत्यादि नाम के बौद्ध है। उनके शौद्धोदनि, धर्मोत्तर, अर्चट, धर्मकीति, प्रज्ञाकर, दिग्नाग इत्यादि ग्रंथकार गुरु है। ___ अब प्रस्तुत श्लोक की प्रारम्भ से व्याख्या की जाती है। बौद्धदर्शन में सुगत (बुद्ध) देव है। 'किल' आप्तप्रवाद में है। अर्थात् किल शब्द से आप्तप्रवाद की सूचना है। वह बौद्धदर्शन के देवता किस प्रकार के है ? चार आर्यसत्यो के प्ररुपक है। सर्व हेय से जो दूर हो गया है वह आर्य कहा जाता है। साधुओको यथासंभव मुक्ति प्राप्त करानेवाला या पदार्थो के या यथावस्थित वस्तु के स्वरुप के चिन्तन द्वारा हितकारी हो उसे सत्य कहलाता है। अथवा सज्जनो का जो हित करे उसे सत्य कहा जाता है। (यहां "पृषोदरादित्वात्" सि.है. ३/२/१५५ सूत्र से "आर्य" शब्द की निष्पत्ति हुई है। आर्याणां सत्यानि आर्यसत्यानि तेषाम् - इस प्रकार समास हुआ है।) __ आर्यसत्य चार है । (१) दुःख, (२) दुःख समुदय, (३) दुःखनिरोध, (४) दुःखनिरोध मार्ग । ये दुःखादि चार आर्यसत्य स्वरुप तत्त्वो के प्ररुपक बुद्ध है। उसमें रुप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, कि जिसका स्वरुप आगे कहा जायेगा वे पांच विपाकस्वरुप उपादानस्कंध ही दुःख है। वे पांच उपादानस्कंध तृष्णा की सहायता से जब (नूतन) स्कंधो की उत्पत्ति में कारण बनता है, तब दुःख समुदय कहा जाता है। दुःख के निरोध के कारणभूत नैरात्म्यादि आकारयुक्त चित्तविशेष को मार्ग कहा जाता है। (अर्थात् निरोध के कारणभूत नैरात्म्यादि आकारयुक्त चित्तविशेष को मार्ग कहते है। अर्थात् निरोध के कारणभूत नैरात्म्यादि भावना से वासित चित्त वह मार्ग है।) और चित्त की निक्लेश अवस्था वह निरोध है। यहाँ अन्वेषणार्थक "मार्गण" धातु से मार्यते-अन्विष्यते याच्यते निरोधार्थिभिः इति मार्गः।" इस व्युत्पत्ति से अन्वेषणार्थक "मार्गण' धातु को चुरादिगण के 'णिच' प्रत्यय लगकर 'अल्' प्रत्यय लगके "मार्ग" शब्द बना है। तथा "निरुध्यते रागद्वेषोपहतचित्तलक्षणः संसारः अनेन इति निरोधः ।" इस व्युत्पत्ति से निरुध् धातु को करण में "धञ्" प्रत्यय लगकर निरोध शब्द बना है। इस दुःखनिरोध का अर्थ मुक्ति है। यहाँ श्लोक में "दुःखादीनां" पद में रहे हुआ "आदि" शब्द अनेक अर्थ में इस्तेमाल होने पर भी यहां (व्यवस्था) अर्थ में इस्तेमाल हुआ है। ऐसा जानना। कहा है कि....... "सामीप्य, व्यवस्था, प्रकार तथा अवयव, इस प्रकार चार अर्थो में मेधावी पुरुष “आदि" शब्द का प्रयोग करते है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy