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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १
अथवा लोक के स्वरुप के विषय में अनेकवादियो ने अनेक प्रकारसे प्ररुपणा की है। वह इस प्रकार है - (८)नारीश्वर अर्थात् महेश्वर से जगत की उत्पत्ति कहते है। दूसरे कुछ लोग सोम तथा अग्नि से जगत की उत्पत्ति मानते है। वैशेषिकोने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय ये छ: पदार्थ स्वरुप जगत को माना है। कोई जगत की उत्पत्ति (९)काश्यपसे है, ऐसा मानते है, कोई जगत को दक्षप्रजापतिकृत कहता है। किसीने ब्रह्मादि (१० त्रिमूति से जगत की उत्पत्ति को माना है । (कुछ लोग एक ही प्रकार की मूर्ति को विष्णु, महादेव और ब्रह्मा ऐसे तीन प्रकार की मानते है। उसमें वैष्णवोने(११) इस जगत को विष्णुमय माना है। (पुराण को माननेवाले) पौराणिकोने(१२) माना है कि विष्णु की नाभि में से उद्भवित कमल में से पैदा (८) पू.आ.भ.हरिभद्रसूरिजी कृत लोकतत्त्वनिर्णय में उपरोक्त मतो का संग्रह किया गया है। वह इस अनुसार है।
"नारीश्वरजं केचित् केचित्सोमाग्निसंभवं लोकं । द्रव्यादिषड्विकल्पं जगदेतत् केचिदिच्छन्ति ॥४३॥" गाथार्थ सुगम है। (९) "इच्छन्ति काश्यपीयं केचित्सर्वं जगन्मनुष्याद्यं । दक्षप्रजापतीयं त्रैलोक्यं केचिदिच्छन्ति ॥४५॥" कुछ लोग
जगत को मनुष्य की आदिवाला (अर्थात् प्रथम मनुष्य उत्पन्न हुआ, उसके बाद अनुक्रम में दूसरे जीव उत्पन्न हुआ,
ऐसा) मानता है। शेष सुगम है। (१०) “केचित्प्राहुर्मूर्तिस्त्रिधा गतैका हरिः शिवो ब्रह्मा । शंभु बीजं जगतः, कर्ता विष्णुः क्रिया ब्रह्मा ॥४६॥"
गाथार्थ सुगम है। (११) जले विष्णुः स्थले विष्णु, राकाशे विष्णुमालिनि । विष्णुमालाकुले लोके, नास्ति किंचिदवैष्णवम् ॥५१॥
सर्वतः पाणिपादान्तं, सर्वतोऽक्षिशिरोमुखं । सर्वतः श्रुतिमान् लोके, सर्वमाश्रित्य तिष्ठति ॥५२॥ ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पत्राणि, यस्तं वेत्ति स वेदवित् ॥५३॥ विष्णुमतवाले कहते है कि जल में विष्णु, स्थलमें विष्णु और आकाश में विष्णु है। इस प्रकार सर्वजगत विष्णुमय है। जिनके सर्वत्र हाथ है। सर्वत्र जिन के नेत्र, मरतक, मुख और कान है और सर्वपदार्थों में जो आश्रय करके रहा हुआ है, ऐसा विष्णुमय यह जगत है। उपरांत महात्माओने ब्रह्म को ऊपर मूल और नीचे शाखावाले अविनाशी पीपल के समान कहा है। (वृक्षरुप पीपल में तो मूल नीचे, शाखा उपर और विनाशी होता है। उससे विपरीत स्वभाववाला ब्रहा है) वह ब्रह्मरुप पीपल के पत्ते वेदमंत्र है। ऐसे ब्रह्म को जो जानता है वो वेद जाननेवाला सर्व पदार्थ को जाननेवाला
कहा जाता है। वह वेद को जाननेवाला है। वह जगत को जाननेवाला कहा जाता है। (१२) पौराणिक की मान्यता : तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजंगमे नष्टामरनरे चैव प्रनष्टोरगराक्षसे ॥५४॥ केवलं
गह्वरीभूते, महाभूतविवर्जिते अचिंत्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ॥५५॥ तत्र तस्य शयानस्य, नाभौ पद्मं विनिर्गतम् । तरुणार्कगंडलनिभं हृद्यं कांचनकर्णिकम् ॥५६॥ तस्मिश्च पद्मे भगवान्, दंडकमंडलयज्ञोपवीतमृगचर्मवस्त्रसंयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः ।। ७॥अदितिः सुरसंधानां, दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणां । विनता विहंगमानां, माता विश्वप्रकाराणाम् ॥५८॥ कद्रुः सरीसृपाणां सुलसामाता तु नागजातीनां । सुरभिश्चतुष्पादानां इला पुनः सर्वबीजानाम् ॥५९॥जात प्रलयकालमें एक समुद्ररुप हो जाता है । त्रस-स्थावर प्राणी, देव-मनुष्य-साप-राक्षस सबका नाश हो जाता है। (ऐसा होने से) पंचमहाभूत से रहित केवल गहरी गुफारुप जगत हो जाता है। तब विष्णु समुद्र में सोते सोते तप तपते है। सोये हुओ विष्णु की नाभि में से मध्याह्न के सूर्यमण्डल जैसे तेजवाला मनोहर और सोने की कलियोवाला कगल नीकला । उस कमल में से दण्ड, कमंडल, जनेउ, मृगचर्म के वस्त्र सहित ब्रह्मा उत्पन्न हुओ । इस ब्रह्माने जगत की गाताओको उत्पन्न किया । (वे यह
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