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________________ षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, पुरोवचन मान-प्रतिष्ठा-पांडित्य आदि सर्व का त्याग करके जिनागमो के आराधक बने, पारदर्शी बने, पारंगत बने । जैसे जैसे जिनागमो की पंक्तियों का वे स्पर्श करते गये, वैसे वैसे उनकी आँखों के सामने अन्यदर्शनो की बाते - तत्त्व - उभरने लगे । सभी दर्शनो की माध्यस्थ्य भाव से तुलना - परीक्षा करके उन्हों ने - श्रीमद् ने ___ "युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः" - युक्तिपूर्वक का (न्याय संगत - सत्य) वचन जिनका होगा, उनका में स्वीकार करूँगा - यह उद्घोषणा करके जैनदर्शन की यथार्थता को जगत में अच्छी तरह से प्रकाशित की । सत्य का स्वीकार और उसके प्रति अविहड श्रद्धा के प्रभाव से ही यह संभव बना होने से उन्हों ने - श्रीमद् ने - “संबोध-प्रकरण" नाम के महाग्रंथ में एक स्थान पे अपने हृदय के भावो को व्यक्त करते हुए बताया है कि, कहं अम्हारिसा पाणी दूसमादोसदूसिया । हा ! अणाहा कहं हुंता जई न हुँतो जिणागमो ।। अर्थ : दूषमकाल की विचित्रताओं से दोषित बने हुए हमारे जैसे अनाथ जीवो का, यदि जिनागम न मिले होते तो क्या होता? ऐसे वे प्राज्ञवर महापुरुष ने जगत में प्रसिद्ध प्रत्येक दर्शनो की मान्यता-आचरणाओं का ज्ञान मिले इसके लिए "षड्दर्शन समुञ्चय" नामक महान संग्रहग्रंथ की रचना करके महोपकार किया हुआ हैं । इस ग्रंथ में उन्हों ने - श्रीमद् ने (१) बौद्धर्शन, (२) नैयायिक दर्शन, (३) सांख्यदर्शन, (४) जैनदर्शन, (५) वैशेषिक दर्शन और (६) मीमांसक दर्शन, ये छ: दर्शनो की बहोत ही सुंदर, संग्रहात्मक शैली में प्रामाणिक माहिती दी हुई है । साथ साथ दर्शन नाम होते हुए भी वास्तविक रूप से देखने से दर्शन की कक्षा में न आ सके ऐसे लोकायत = चार्वाक मत की भी आवश्यक जानकारी दी हैं। इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के उपर तार्किक सम्राट पू.आ.भ. श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी महाराज ने बहोत ही विशद वृत्ति की रचना की हैं। यह ग्रंथ तत् तत् दर्शनो के महत्त्व के प्रत्येक सिद्धांत आदि का बहोत ही असरकारक तरीके से वर्णन करता हैं । वह वर्णन भी न्याय की शैली में किया गया हैं । उसकी एक-एक पंक्ति को समजने के लिए बुद्धि काफी कसनी पडती है और इसके उपरांत भाषा ज्ञान उपरांत तर्क के प्रारंभिक ग्रंथ और सूक्ष्म क्षयोपशम की आवश्यता पडती हैं । ऐसी ज्ञानलक्ष्मी बहोत कम पुण्यात्माओं के पास होने से, इस ग्रंथ का अभ्यास करनेवालो की संख्या भी कम ही हो, यह समजा जा सकता हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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