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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, पुरोवचन
पुरोवचन
जगत के सभी जीव सुख के कामी है । सुख पाने की जिनको इच्छा हो उनको दुःख तो इच्छनीय होता ही नहीं, यह समज में आये ऐसी बात है । जीवो को दुःख से छुडाकर सुखी बनाने के लक्ष्य से ही जगत के सर्वदर्शनो की प्रस्थापना हुई है । दर्शन अर्थात् धर्म । दर्शन अर्थात् दृष्टि, समज या मान्यताविशेष । जीव को दुःख में से सुख की ओर ले जाने के उद्देश से जगत में प्रसारित-प्रचारित की गई कोई निश्चित मान्यता और तदनुसारी आचरणा को ही दर्शन के रूप में पहचाना जाता हैं ।
जैनदर्शन ने मुक्तिमार्ग के रूप में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रयी की आराधना बताई है । ये तीनों में भी एक अपेक्षा से सम्यग्दर्शन ही प्रधान हैं । क्योंकि वह नींव के स्थान पे है । सम्यग्दर्शन की शुद्धि के आधार पे ही ज्ञान और चारित्र की सम्यक्ता टिकी रहती हैं । यदि दर्शन सम्यक् हो तो ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् बनते हैं और यदि दर्शन मिथ्या हो तो ज्ञान और चारित्र भी मिथ्या बनते हैं । सम्यक् बने हुए दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही भवपरंपरा का अंत ला सकते हैं ।
इसी लिए ही प्रत्येक आत्मार्थी - सुखार्थी जीवो को सब से पहले सातत्य से दर्शन को “सम्यक्" बनाने का प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए।
दर्शन को सम्यक् बनाने के लिए सर्वप्रथम जगत के सभी पदार्थो को हेयोपादेयादि के विभागपूर्वक जानने पडते हैं । उसके साथ साथ अन्य अन्य दर्शन जिस अनुसार से पदार्थों की संख्या और पदार्थो का स्वरूप समजाते हैं, उसको जानना पडेगा और सर्व दर्शनो में कौन सा दर्शन यथार्थ है उसका निर्णय किया जाये तो ही मोक्षलक्षी आराधना सम्यक् बनती हैं।
सूरिपुरंदर पू. आचार्यदेव श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा पूर्वावस्था में वेदांतदर्शन के प्रकांड विद्वान थे। वे चौदह विद्याओं के पारगामी थे । समर्थ वादी थे । राजमान्य थे। राज पुरोहित के पद पे प्रतिष्ठित थे । साथ साथ जैनदर्शन के वे कट्टर द्वेषी भी थे । फिर भी वे सरल थे । उनमें अखंड ज्ञानपिपासा थी । उसी ज्ञानपिपासा में से ही उन्हों ने एक प्रतिज्ञा की थी कि, किसी भी वाक्य का अर्थ-परमार्थ उनको समज में न आये तो उसे समझाने वाले का वे शिष्यत्व स्वीकार करेंगे।
एकदा राजमार्ग के उपर से गुजरते एक साध्वीजी भगवंत के मुख से बोली जाती प्राकृत गाथा का सांकेतिक अर्थपरमार्थ समज न सकने से, साध्वीजी महाराजा के मर्यादा-पालन से जैनाचार्य की शरण में जाकर विनय-विवेक से अर्थ की याचना करने से आचार्यश्री की दीर्घदृष्टिपूर्ण गीतार्थता से अभिभूत होकर वे जैनश्रमण बने । पूर्वकाल के
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