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षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १
उपरांत इस अनुसार भिन्नकाल में होनेवाली दो क्रियाओकी एक कर्तृकता बौद्धमत में संभवित नहीं है। क्योंकि, बौद्ध के द्वारा क्षणिक वस्तु का स्वीकार किया गया है। (कहने का मतलब यह है कि जो कर्ता ने नमनक्रिया की, वह कर्ता तो (बौद्ध मत में सर्व वस्तु क्षणिक होने के कारण) उसी क्षण नष्ट होता है। तो दूसरी निगदनक्रिया किस प्रकार कर सकेगा? क्योंकि नमनक्रिया और निगदनक्रिया का काल भिन्न है और नमनक्रिया करनेवाला व्यक्ति तो नष्ट हो गया है। इसलिए बौद्धमत में भिन्नकाल में होनेवाली दो क्रिया की एककर्तृकता संभवित नहीं है।) इसलिए दो क्रिया का एक कर्ता उपरोक्त प्रकार से सिद्ध करने से बौद्धमत का खण्डन हो जाता है। इस प्रकार बौद्धमत का प्रस्तुत ग्रंथ में प्रारम्भ में वर्णन होने पर भी कोई उसकी उपादेयता न मान बैठे, इसलिए उपरोक्त स्पष्टता की। (वैसे तो बौद्धमत का खण्डन) पहले कहे गये "स्याद्वाददेशकं" विशेषण से किया गया होने पर भी ग्रंथ के आदि में उसका वर्णन होने से कोई उपादेय न माने इसलिए पुनः भी यहां सूचन किया है। यह सब अन्य'४) दर्शनो की मान्यता का खण्डन अन्य ग्रंथ से जान लेना। "जिनं" विशेषण द्वारा (जैनदर्शन की) सत्यदर्शनता को और सर्व अन्य दर्शन के (खण्डन द्वारा) विजयीवचनता को कहते हुए, सभी अन्यदर्शनो की हेयता और जैन दर्शन की उपादेयता सूचित हुई जानना। इसलिए इस ग्रंथकार से सत्यासत्य-दर्शन के विभाग से अनभिज्ञ जीवो के उपर कोई अपकार का संभव नहीं है। क्योंकि ग्रंथकारश्री के द्वारा सत्यासत्य का विभाग भी प्रकट किया ही गया है। ___ अत्रापरः कश्चिदाह । ननु येषां सत्यासत्यमतविभागाविर्भावके ग्रन्थकारवचसि सम्यगास्था न भवित्री, तेषां का वार्तेति ? उच्यते-येषामास्था न भाविनी, ते द्वेधा । एके रागद्वेषाभावेन मध्यस्थचेतसः, अन्ये पुना रागद्वेषादिकालुष्यकलुषितत्वादुर्बोधचेतसः । येदुर्बोधचेतसस्तेषां सर्वज्ञेनापि सत्यासत्यविभागप्रतीतिः कर्तुं दुःशका, किं पुनरपरेणेति तानवगणय्य मध्यस्थचेतस उद्दिश्य विशेषणावृत्त्या सत्यासत्यमतविभागज्ञानस्योपायं प्राह । सद्दर्शनमिति । वीरं कथंभूतम् ? सद्दर्शनम् । सन्तः साधवो मध्यस्थचेतस इति यावत् तेषां दर्शनं ज्ञानमर्थात्सत्यासत्यमतविभागज्ञानं यथावदाप्तत्वपरीक्षाक्षमत्वेन यस्माद्वीरात्स सद्दर्शनस्तम् । एतेन श्रीवीरस्य यथावदाप्तत्वादिस्वरूपमेव परीक्षणीयमिति सूचितम् । अथवा सतां साधूनां दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं यस्मात्स सद्दर्शनः । अथवा सन्तो विद्यमाना जीवाजीवादयः पदार्थास्तेषां दर्शनं यथावदवलोकनं यस्माद्वीरात्स सद्दर्शनस्तम् । कुत एवंविधम् । यतः स्याद्वाददेशक, प्रागुक्तस्याद्वादभाषकम् । एवंविधमपि कुत इत्याह - यतो जिन रागद्वेषादिजयनशीलम् । जिनो हि वीतरागत्वादसत्यं न भाषते, तत्कारणाभावादिति भावःA-7 । शेषश्लोकव्याख्यानं प्राग्वत् ।
(४) शास्त्रवार्ता समुच्चय, स्याद्वाद कल्पलता, स्याद्वादमञ्जरी, रत्नाकर अवतारिका, स्याद्वाद रत्नाकर, वाद-महार्णव
(सम्मतितर्क प्रकरण की टीका) इत्यादि अनेक ग्रंथोमें तत् तत् अन्य दर्शनो की मान्यता का खंडन है।
(A-7)- तु० पा० प्र० प० ।
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