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________________ षड्दर्शन समुञ्चय भाग - १, श्लोक - १ नन्वयं शास्त्रकारः सर्वदर्शनसंबन्धीनि शास्त्राणि सम्यक्परिज्ञायैव परोपकाराय प्रस्तुतं शास्त्रं दृब्धवान्, तत्कथमनेनैवेहेदं नाभिदधे अमुकममुकं दर्शनं हेयममुकं चोपादेयमिति चेत्, उच्यते । इह तु सर्वदर्शनान्यभिधेयतया प्रक्रान्तानि, तानि माध्यस्थ्येनैवाभिदधानोऽत्रौचिती नातिक्रामति । इदमिदं हेयमिदं चोपादेयमिति ब्रुवाणस्तु प्रत्युत सतां सर्वदर्शनानां चानादेयवचनो वचनीयतामञ्चति । नन्वेवं तस्याचार्यस्य न परोपकारार्थी प्रवृत्तिः । कुत एवं भाषसे । नन्वेष दर्शयामि । ये केचन मादृशाः श्रोतारः स्वयमल्पबुद्धित्वेन हेयोपादेयदर्शनानां विभागं न जानीयुस्तेषां सर्वदर्शनसत्तत्त्वं निशम्य प्रत्युतैवं बुद्धिर्भवेत् । सर्वदर्शनानि तावन्मिथो विरुद्धाभिधायीनि, तेषु च कतरत्परमार्थसदिति न परिच्छिद्यते । तत्किमेतैर्दर्शनैर्दुमा॑नः प्रयोजनम् । यदेव हि स्वस्मै रोचते तदेवानुष्ठेयमिति । एवंविधाश्चाविभागज्ञा अस्मिन्काले भूयांसोऽनुभूयन्ते । तदेवं शास्त्रकारस्य सूरेरुपकाराय प्रवृत्तस्य प्रत्युत प्रभूतानामपकारायापि प्रवृत्तिः प्रबभूव, ततश्च लाभमिच्छतो मूलहानिरजनिष्टेति चेत्, न । शास्त्रकारात्सर्वोपकारायैव प्रवृत्तात्कस्याप्यपकारासिद्धेः । विशेषणद्वारेण हेयोपादेयविभागस्यापि कतिपयसहृदयहृदयसंवेद्यस्य संसूचनात् । तथाहि । सद्दर्शनं जिनं नत्वा । “सद्विद्यमाने सत्ये च प्रशस्तार्चितसाधुषु" [अनेकार्थ० १/१०] इत्यनेकार्थनाममालावचनात् । सत्सत्यं न पुनरसत्यं दर्शनं मतं यस्य तम् । जिनमिति विशेष्यम् । चतुर्विंशतेरपि जिनानामेकतरं(म) रागादिशत्रुजयात्सान्वयनामानं जिनं वीतरागं नत्वा । एतेन पदद्वयेन चतुर्विंशतेरपि जिनानामन्योन्यं मतभेदो नास्तीति सूचितम् । टीकाका भावानुवाद : शंका : यह ग्रन्थकारश्रीने सर्वदर्शन संबंधित शास्त्रो का सम्यक् परिज्ञान करके ही परोपकार के लिये प्रस्तुत ग्रंथ की रचना की है। तो इस ग्रंथ के द्वारा ही क्यों नहीं कहा कि कुछ खास दर्शन हेय है तथा कुछ खास दर्शन उपादेय है ? समाधान : ग्रंथकारश्रीने इस ग्रंथ में सर्वदर्शनो के अभिधेयार्थ को (वाच्यार्थ को) कहने की शुरुआत की है। तब इस ग्रंथ में तत् तत् दर्शन के वाच्यार्थ को मध्यस्थ रुप में कहते हुए ग्रंथकार श्री औचित्य का अतिक्रमण नहीं करते । अर्थात् ग्रंथकारश्रीने सर्वदर्शनो के वाच्यार्थ को बताने की प्रारम्भ में प्रतिज्ञा की है। तदनुसार वर्तन करना वही उचित है। परन्तु यदि "यह दर्शन हेय" और "यह दर्शन उपादेय" इस प्रकार कहे तो प्रत्युत (उलटा) सज्जनो को तथा अन्यदर्शनवालो को उनके वचन अनादेय बन जायेंगे. और निन्दापात्र बन जायेंगे। शंका : यदि ग्रन्थकारश्री सर्वदर्शनो की हेयता-उपादेयता न बताये तो ग्रंथकार की परोपकार के लिये प्रवृत्ति है ऐसा किस तरह कहा जा सकता है ? प्रश्न : आप इस प्रकार क्यों कहते हैं ? उत्तर : वह मैं बताता हूं। जो मेरे जैसे श्रोता है कि जो अल्पबुद्धि होने के कारण स्वयं हेय-उपादेय दर्शनो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004073
Book TitleShaddarshan Samucchaya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanyamkirtivijay
PublisherSanmarg Prakashak
Publication Year2012
Total Pages712
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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