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________________ २२ मनोभावनाओं की शुद्धि भावशुद्धिरपि ज्ञेया यैषा मार्गानुसारिणी । प्रज्ञापनाप्रियाऽत्यर्थं न पुनः स्वाग्रहात्मिका ॥१॥ मनोभावनाओं की ( सच्ची ) शुद्धि भी वही समझी जानी चाहिए जो मोक्ष - मार्ग का अनुसरण करती है तथा अत्यंत शास्त्रानुराग वाली है— न कि वह जिसका आधार एक व्यक्ति का अपना आग्रह मात्र है । (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र की समझ है कि अपनी मनोभावनाओं की शुद्धि करना उसी व्यक्ति के लिए संभव है जो न केवल मोक्ष पथ का पथिक है बल्कि जो उत्कट शास्त्र - भक्त भी है । रागो द्वेषश्च मोहश्च भावमालिन्यहेतवः । एतदुत्कर्षतो ज्ञेयो हन्तोत्कर्षोऽस्य तत्त्वतः ॥२॥ मनोभावनाओं की मलिनता के कारण हैं राग, द्वेष तथा मोह, और समझना यह चाहिए कि वस्तुतः इन राग आदि की वृद्धि के फलस्वरूप ही मनोभावनाओं में मलिनता की वृद्धि होती है । तथोत्कृष्टे च सत्यस्मिन् शुद्धिर्वै शब्दमात्रकम् । स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितं नार्थवद् भवेत् ॥३॥ और मनोभावनाओं में मलिनता की वृद्धि के इस प्रकार रहते शुद्धि की बात केवल बात है, ऐसी बात जिसे एक व्यक्ति ने अपनी बुद्धि के कल्पनाकौशल के बल पर खड़ा कर लिया है लेकिन जिसमें अर्थ कुछ नहीं । न मोहोद्रिक्तताऽभावे स्वाग्रहो जायते क्वचित् । गुणवत्पारतंत्र्यं हि तदनुत्कर्षसाधनम् ॥४॥ Jain Education International मोह की अत्यन्त वृद्धि हुए बिना एक व्यक्ति के मन में अपनी बात का आग्रह उत्पन्न नहीं होता, और मोह के ह्रास का कारण है एक व्यक्ति का For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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