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अष्टक-२१
(अथवा यहाँ 'साधु' इस शब्द का अर्थ एक सामान्य सद्-व्यक्ति भी किया जा सकता है)।
लौकिकैरपि चैषोऽर्थो दृष्टः सूक्ष्मार्थदर्शिभिः ।
प्रकारान्तरतः कैश्चिद् यत एवमुदाहृतम् ॥५॥
सूक्ष्मदर्शी कुछ लौकिक ग्रंथकारों ने भी (अर्थात् कुछ उन ग्रंथकारों ने भी जो शास्त्रकार नहीं) इस बात को समझ लिया है, क्योंकि यही बात उनमें से किन्हीं ने प्रकारान्तर से कही है।
अंगेष्वेव जरां यातु यत् त्वयोपकृतं मम ।
नरः प्रत्युपकाराय विपत्सु लभते फलम् ॥६॥ (उदाहरण के लिए, वाल्मीकि ने सुग्रीव के मुख से राम से कहलाया है) "आपने मेरा जो उपकार किया है मैं चाहता हूँ कि वह मेरे अंग-प्रत्यंग में ही पच जाए, क्योंकि एक मनुष्य को प्रत्युपकार का फल तो विपत्ति के समय मिला करता है (अर्थात् उस समय जब वह व्यक्ति जिस पर प्रत्युपकार किया जा रहा है विपत्ति में हो) ।"
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का (वस्तुत: वाल्मीकि का) इंगित इस बात की ओर है कि स्थूल-बुद्धि से देखने पर ही प्रत्युपकार की इच्छा एक सत्इच्छा प्रतीत होती है जबकि सूक्ष्म-बुद्धि से देखने पर वह एक असत्-इच्छा सिद्ध होती है।
एवं विरुद्धदानादौ हीनोत्तमगतेः सदा । प्रव्रज्यादिविधाने च शास्त्रोक्तन्यायबाधिते ॥७॥ दव्यादिभेदतो ज्ञेयो धर्मव्याघात एव हि ।
सम्यग्माध्यस्थ्यमालम्ब्य श्रुतधर्मव्यपेक्षया ॥८॥ इसी प्रकार, हीन (व्यक्ति अथवा वस्तु) को उत्तम समझकर दिए गए शास्त्र-विरुद्ध दान आदि तथा शास्त्रोक्त प्रणाली का उल्लंघन करके दिलाई जाने वाली प्रव्रज्या आदि के संबंध में भी समुचित तटस्थ भावना के साथ तथा शास्त्रोक्त धर्म को ध्यान में रखते हुए सदा यही समझना चाहिए कि ये सब क्रिया-कलाप धर्म-हानि रूप हैं, उस धर्म-हानि रूप जो द्रव्य आदि से संबंधित होने के आधार पर अनेक प्रकार की है (अर्थात् जिस धर्म-हानि का आधार
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