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माँस-भक्षण के दोष-१
आदि अभक्ष्य) ।
प्राण्यंगत्वेन च नोऽभक्षणीयमिदं मतम् ।
किन्त्वन्यजीवभावेन तथा शास्त्रप्रसिद्धितः ॥४॥
फिर हम माँस को अ-भक्ष्य इस आधार पर नहीं मानते कि वह एक प्राणी (के शरीर) का भाग है बल्कि इस आधार पर कि माँस में अन्य जीव रहा करते हैं और यह बात (अर्थात् माँस में अन्य जीवों के रहने की बात) शास्त्र द्वारा जानी जाती है ।
(टिप्पणी) यह एक जैन मान्यता है कि माँस में अत्यंत सूक्ष्म जीव (पारिभाषिक नाम 'निगोद') रहा करते हैं। इस संबंध में टीकाकार ने निम्नलिखित शास्त्रीय गाथा उद्धृत की है :
आमासु य पक्कासु य विपच्चमाणासु मांसपेसीसु । आयन्तियमुववाओ भणिओ निगोयजीवाणं ॥ [ =आमासु च पक्कासु च विपच्यमानासु च मांसपेशीषु ।
आत्यन्तिकमुपपातो भणितो निगोदजीवानाम् ॥] (अर्थात् कच्ची, पकाई हुई तथा पकाई जाती हुई मांसपेशियों में 'निगोद' जीव बड़ी संख्या में उत्पन्न हुआ करते हैं)।
भिक्षुमांसनिषेधोऽपि न चैवं युज्यते क्वचित् ।
अस्थ्याद्यपि च भक्ष्यं स्यात् प्राण्यंगत्वाविशेषतः ॥५॥ फिर प्रस्तुतवादी का मत स्वीकार करने पर (अर्थात् यह मत कि एक प्राणी के शरीर का भाग सदा भक्ष्य है) भिक्षु-माँस खाने का निषेध भी कभी युक्तिसंगत न ठहरेगा, दूसरे, उस दशा में हड्डी आदि भी भक्ष्य ठहरेंगे और वह इसलिए कि वे भी एक प्राणी (के शरीर) का भाग हैं ही ।
एतावन्मात्रसाम्येन प्रवृत्तिर्यदि चेष्यते ।
जायायां स्वजनन्यां च स्त्रीत्वात्तुल्यैव साऽस्तु ते ॥६॥ यदि प्रस्तुतवादी (माँस तथा चावल के बीच) इतनी सी (अर्थात् थोड़ी सी) समानता देखने पर ही माँस-भक्षण में प्रवृत्त हो सकता है तब तो उसे अपनी पत्नी तथा अपनी माता दोनों के प्रति एक सा व्यवहार करना चाहिए और वह
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