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वाद (शास्त्रार्थ )
एक बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह वाद के मैदान में भली भाँति यह समझकर उतरे कि अमुक परिस्थिति में स्थान आदि की दृष्टि से (अपने लिए तथा धर्म के लिए) गौरवकारी बात क्या ठहरेगी और लाघवकारी बात क्या - साथ ही उसे चाहिए कि वह तीर्थंकरों के दृष्टान्त पर सोच-विचार करके वाद के मैदान में उतरे ।
(टिप्पणी) 'तीर्थंकर' (= 'जिन') जैन परंपरा का एक पारिभाषिक शब्द है और इस परंपरा की मान्यतानुसार तीर्थंकर होना एक संसारी व्यक्ति के चरम सौभाग्य का सूचक है । एक तीर्थंकर अपने इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करते हैं यह उनकी बड़ी विशेषता नहीं— क्योंकि अपने इसी जन्म में मोक्ष तो दूसरे व्यक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं । एक तीर्थंकर की बड़ी विशेषता यह है कि वे जैन धर्म की मौलिक मान्यताओं का प्रामाणिक निरूपण करने के अधिकारी हैं । यह भी जान लिया जाए कि 'तीर्थंकर' एक प्रकार के शुभ 'कर्म' का नाम है जिसका अर्जन अति विशिष्ट पुण्यशाली वे व्यक्ति किया करते हैं जो अपने इस 'कर्म' के फलस्वरूप अपने किसी आगामी जन्म में जाकर तीर्थंकर होते हैं । आज के जैनों की दृष्टि में अन्तिम तीर्थंकर हुए हैं वर्धमान महावीर ( समय ५९९-५२७ ई० पू० ) तथा उनसे पहले तीर्थंकर पार्श्वनाथ ( समय ७९९-६९९ ई० पू० ) । प्रस्तुत कारिका में आचार्य हरिभद्र कह रहे हैं कि तीर्थंकरगण जिन परिस्थितियों में वाद के मैदान में उतरे हैं वे ही परिस्थितियाँ वाद के मैदान में उतरने के लिए आदर्श हैं ।
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