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अष्टक-९
आदि के अवसर पर) एक व्यक्ति के मन में किसी प्रकार की विघ्न-शंका नहीं उठा करती, इस प्रकार के ज्ञान में ज्ञान के आवरण (अर्थात् ज्ञान के आवरणभूत 'कर्म') नहीं हटे होते (अथवा इस प्रकार के ज्ञान में 'अज्ञान' के -अर्थात् 'मति-अज्ञान' आदि के-आवरणभूत 'कर्म' हटे होते हैं) तथा वह भयंकर विपत्तियों का कारण सिद्ध होता है ।
(टिप्पणी) प्रस्तुत पहले प्रकार के ज्ञान वाले व्यक्ति को किसी वस्तु के संबंध में विघ्न आदि की आशंका (अथवा लाभ आदि की आशा) इसलिए नहीं होती कि वह इस वस्तु के गुण-दोषों से अनभिज्ञ है। दूसरी बात, जैन कर्म-शास्त्र की एक मान्यता है कि एक व्यक्ति के मन में किसी भी प्रकार के ज्ञान का उदय तभी होता है जब वह ज्ञान के आवरण भूत ‘कर्मों' को अपनी आत्मा पर से हटा पाता है । लेकिन जैन कर्म-शास्त्र की एक यह भी मान्यता है कि एक घोर संसारी व्यक्ति को होने वाला सभी ज्ञान वस्तुतः अज्ञान है; ('मति' आदि ज्ञान के उप-विभाग हैं) । इसलिए प्रस्तुत पहले प्रकार के ज्ञान के संबंध में आचार्य हरिभद्र कह रहे हैं कि उसके प्रकट होने के अवसर पर ज्ञान के (अर्थात् वास्तविक ज्ञान के) आवरण नहीं हटे होते अथवा यह कि उसके प्रकट होने के अवसर पर अज्ञान के (अर्थात् उस ज्ञान के जो वस्तुतः अज्ञान रूप है) आवरण हटे होते हैं । आचार्य हरिभद्र के शब्दों के ये दो अर्थ एक दूसरे से थोड़ा भिन्न प्रतीत होते हुए भी तत्त्वतः एक ही हैं । सचमुच, हम कह सकते हैं कि प्रस्तुत अष्टक में आचार्य हरिभद्र पहले तो ज्ञान को दो मुख्य भागों में बाँट रहे हैं एक 'अज्ञान रूप ज्ञान' दूसरा 'ज्ञान रूप ज्ञान' और फिर वे इनमें से दूसरे भाग को दो उप-विभागों में बाँट रहे हैं । यह समझना सरल ही है कि प्रस्तुत पहले प्रकार का ज्ञान 'महापायनिबंधन' कैसे ।
पातादिपरतंत्रस्य तद्दोषादावसंशयम् ।
अनर्थाद्याप्तियुक्तं चात्मपरिणतिमन्मतम् ॥४॥ - 'शुभ मनोभावना वाला' ज्ञान उस व्यक्ति को होता है जो अध:पतन आदि का वशवर्ती होता है लेकिन जिसका यह ज्ञान अधःपतन आदि के दोष आदि के संबंध में नि:संदिग्ध होता है तथा जिसे यह ज्ञान अनर्थ आदि की प्राप्ति कराता है।
- (टिप्पणी) 'आत्मपरिणति' (अथवा आत्मपरिणाम) इस शब्द को शुभ मनोभावना के पर्याय के रूप में पहले भी देखा जा चुका है और सामान्यतः
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