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अष्टक-८
फल है । 'प्रत्याख्यान' के अवसर पर घोर प्रयत्न का अभाव एक अशोभन काम है और प्रस्तुत कारिका के पूर्वार्ध के दो अर्थ इस अशोभन काम को अभी बतलाए गए दो रूपों में देखने का फल हैं ।
एतद्विपर्ययाद् भावप्रत्याख्यानं जिनोदितम् ।
सम्यक् चारित्ररूपत्वान्नियमान्मुक्तिसाधनम् ॥७॥ इन सबसे उलटे प्रकार के प्रत्याख्यान को पूज्य शास्त्रकारों ने भावप्रत्याख्यान कहा है और ऐसा प्रत्याख्यान सदाचरण स्वरूप होने के कारण नियमतः मोक्ष को दिलाने वाला सिद्ध होता है ।
(टिप्पणी) हम पहले देख चुके हैं कि आचार्य हरिभद्र के मतानुसार मोक्ष-प्राप्ति का चरम-कारण है सदाचरण की उत्तरोत्तर वृद्धि; ऐसी दशा में यदि वे भाव-प्रत्याख्यान को मोक्ष का कारण मानते हैं तो इसीलिए कि वह सदाचरण रूप है।
जिनोक्तमिति सद्भक्त्या ग्रहणे द्रव्यतोऽप्यदः ।
बाध्यमानं भवेद् भावप्रत्याख्यानस्य कारणम् ॥८॥ द्रव्यतः किया गया प्रत्याख्यान भी यदि 'उसका (अर्थात् प्रत्याख्यान का) विधान पूज्य शास्त्रकारों ने किया है' ऐसी सच्ची भक्ति-भावना के हाथों बाधित हो रहा हो तो वह भाव-प्रत्याख्यान का कारण बनता है ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि यदि कोई व्यक्ति प्रत्याख्यान का संपादन शास्त्र-भक्तिपूर्वक करता है तो भले ही उसका प्रत्याख्यान प्रारंभ में द्रव्य प्रत्याख्यान की कोटि का हो लेकिन अन्त में जाकर वह अवश्य भाव-प्रत्याख्यान में परिणत हो जाता है ।
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