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________________ प्रत्याख्यान (पाप-विरति का संकल्प ) निम्नलिखित चार अवस्थाएँ धारण कर सकता है (१) उदय (अर्थात् पूरे वेग से अपना फल देना), (२) क्षय (अर्थात् अपना फल देकर नष्ट हो जाना), (३) उपशम (अर्थात् कुछ समय के लिए अपना फल देने से सर्वथा रुक जाना), (४) क्षयोपशम (अर्थात् कम वेग से अपना फल देना) । 1 इसीलिए बोल-चाल की भाषा में ' क्षयोपशम' का अर्थ वेग - शान्ति किया जा सकता है । जैन परंपरा की मान्यता है कि यदि एक व्यक्ति के मन में त्याग रूप शुभ मनोभावना प्रकट होती है तो उसके एक 'कर्म'- विशेष का (जिसका पारिभाषिक नाम है 'प्रत्याख्यानावरण कषाय ) वेग शान्त होना आवश्यक है । 'जिन' (='तीर्थकर ' ) जैन परंपरा का एक अतिसम्मानसूचक विशेषण है (परंपरा का नाम ही इस शब्द पर आधारित है) और जो व्यक्ति इस विशेषण का अधिकारी है वही शास्त्र - प्रणयन का भी, इसीलिए यहाँ 'जिन' का अर्थ 'पूज्य शास्त्रकार' वह किया जा रहा है । 'संवेग' इस शब्द से 'संसार (= पुनर्जन्म - चक्र) के प्रति भय की भावना' तथा 'मोक्ष के प्रति अभिलाषा की भावना' दोंनों का सूचन होता है ( वस्तुतः ये दोनों भावनाएँ साथ साथ चलनी चाहिए) । 'तथा' (= आवश्यकतानुसार) इस शब्द के प्रयोग से आचार्य हरिभद्र यह सूचित कर रहे हैं कि द्रव्य - प्रत्याख्यान में भी त्याग रूप शुभ मनोभावना एक सीमा तक प्रकट हो सकती है— लेकिन उस दशा में वह 'जिनाज्ञाभक्ति' तथा 'संवेग' से शून्य होती है । २७ उदग्रवीर्यविरहात् क्लिष्टकर्मोदयेन यत् । बाध्यते तदपि द्रव्यप्रत्याख्यानं प्रकीर्तितम् ॥६॥ Jain Education International 1 घोर प्रयत्न के अभाव के कारण उदय होने वाले क्लिष्ट (अर्थात् संतापकारी) 'कर्म' जिस प्रत्याख्यान को बाधा पहुँचा रहे हों (अथवा क्लिष्ट 'कर्मों' के उदय के कारण अस्तित्व में आनेवाला घोर प्रयत्न का अभाव जिस प्रत्याख्यान को बाधा पहुँचा रहा हो ) वह भी द्रव्य - प्रत्याख्यान ही कहलाता है (टिप्पणी) जैन कर्म - शास्त्र की मान्यतानुसार एक व्यक्ति के प्रत्येक अशोभन काम के संबंध में दो बातें कही जा सकती हैं—पहली यह कि उसके फलस्वरूप इस व्यक्ति के किन्हीं पूर्वार्जित क्लिष्ट 'कर्मों' का उदय होता है, दूसरी यह कि वह स्वयं इस व्यक्ति के किन्हीं पूर्वार्जित क्लिष्ट 'कर्मों' के उदय का For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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