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भिक्षा
गया है ।
निःस्वांधपंगवो ये तु न शक्ता वै क्रियान्तरे । भिक्षामटन्ति वृत्त्यर्थं वृत्तिभिक्षेयमुच्यते ॥६॥
जो निर्धन, अंधे, लंगड़े व्यक्ति कोई दूसरा काम करने में असमर्थ ही हैं तथा अपनी जीविका के लिए भिक्षा माँगते फिरते हैं उनकी भिक्षा 'वृत्तिभिक्षा' कहलाती है ।
(टिप्पणी) इस प्रकार 'वृत्ति - भिक्षा' का अर्थ हुआ वृत्ति अर्थात् जीविका के लिए माँगी गई भिक्षा । स्पष्ट है कि जो व्यक्ति कोई दूसरा काम करने में समर्थ होते हुए भी भिक्षा माँगते हैं उनकी भिक्षा या तो 'पौरुषघ्नी' कोटि में आएगी या ‘सर्वसम्पत्करी' कोटि में—क्योंकि ये व्यक्ति या तो झूठे साधु होंगे या सच्चे साधु ।
नातिदुष्टाऽपि चामीषामेषा स्यान्न ह्यमी तथा । अनुकम्पानिमित्तत्वाद् धर्मलाघवकारिणः ॥७॥
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इन व्यक्तियों की यह भिक्षा भी अत्यन्त दोष वाली नहीं, क्योंकि वे दूसरों में अपने प्रति करुणा उत्पन्न करते हैं और इसलिए उस भाँति (अर्थात् 'पौरुषघ्नी' भिक्षा करने वाले व्यक्ति की भाँति ) धर्म की प्रतिष्ठा गिराने वालें नहीं सिद्ध होते ।
दातॄणामपि चैताभ्यः फलं क्षेत्रानुसारतः । विज्ञेयमाशयाद् वाऽपि स विशुद्धः फलप्रदः ॥ ८ ॥
अष्टक - २ Jain Education International
ये तीन प्रकार की भिक्षाएँ देने वाले व्यक्ति भी 'जैसा खेत वैसा फल' पाते हैं (अर्थात् जैसा भिक्षुक वैसा भिक्षादान - फल पाते हैं ); अथवा कहना चाहिए कि ये भिक्षा-दाता व्यक्ति भिक्षादान - कालीन अपनी मनोभावना के अनुसार फल पाते हैं और वह इसलिए कि विशुद्ध मनोभावना ही फलवती हुआ करती है । (टिप्पणी) उस पूर्व - परिचित पारिभाषिक शब्दावली में कहा जा सकता है शुभ मनोभावनाओं के साथ भिक्षा देना 'भावत: ' भिक्षा देना है जबकि शुभ मनोभावनाओं के बिना भिक्षा देना 'द्रव्यतः ' भिक्षा देना है ।
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