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________________ अष्टक-५ व्यक्ति' । 'भ्रमर की भाँति विचरण करने' का अर्थ है एक एक स्थान से थोड़ा थोड़ा माँगते हुए विचरण करना । 'वृद्धादि' में 'आदि' इस शब्दांश से आशय है उन सखा-साधुओं से जो रोग आदि किसी कारण से भिक्षा के लिए जाने में असमर्थ हो गए हैं । एक साधु को भोजन आदि अपनी सभी जीवन-यापन सामग्री भिक्षा द्वारा प्राप्त करनी चाहिए यह जैन-परंपरा की-वस्तुतः भारत की सभी भिक्षु-परंपराओं की-अपनी मान्यता है । इसीलिए आचार्य हरिभद्र इंगित कर रहे हैं कि भिक्षा माँगते समय एक साधु अनुभव करता है कि वह शास्त्राज्ञा का पालन कर रहा है न कि किसी प्रकार की लज्जा का अनुभव । हाँ, एक साधु को भिक्षा माँगने का वास्तविक अधिकार तभी प्राप्त होता है जब वह साधुजीवन के सभी नियमों का यथोचित पालन करे । वरना, जैसा कि हम अभी देखने जा रहे हैं, उसकी भिक्षा 'पौरुषघ्नी' कोटि में गिनी जाएगी । प्रव्रज्यां प्रतिपन्नो यस्तद्विरोधेन वर्तते । असदारंभिणस्तस्य पौरुषनीति कीर्तिता ।४॥ जो व्यक्ति प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् प्रव्रज्यावस्था के प्रतिकूल आचरण करता है तथा पाप-कर्म करता है उसकी भिक्षा 'पौरुषघ्नी' कही गई है। (टिप्पणी) 'पौरुषघ्नी' का शब्दार्थ अगली कारिका में बतलाया जाएगा। धर्मलाघवकृन्मूढो भिक्षयोदरपूरणम् । करोति दैन्यात् पीनांगः पौरुषं हन्ति केवलम् ॥५॥ ऐसा मूर्ख तथा धर्म की प्रतिष्ठा गिराने वाला व्यक्ति भिक्षा द्वारा अपनी उदर पूर्ति दीनता-पूर्वक करता है और वह हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला होते हुए भी अपने पुरुषार्थ का हनन मात्र करता है । (टिप्पणी) प्रस्तुत व्यक्ति की उदर-पूर्ति दीनता-पूर्वक की गई उदरपूर्ति इसलिए कही जा रही है कि सत्समाज इस व्यक्ति को अश्लाघा की दृष्टि से देखता है। अपना किसी प्रकार का पुरुषार्थ सिद्ध करने में असमर्थ सामान्यतः वह व्यक्ति होता है जिसका शरीर इस-उस प्रकार से रुग्ण हो लेकिन प्रस्तुत व्यक्ति हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला होते हुए भी अपना किसी प्रकार का पुरुषार्थ नहीं सिद्ध कर पाता । अर्थ तथा काम का तो इसलिए कि वह गृहस्थ नहीं और धर्म तथा मोक्ष का इसलिए नहीं कि वह सच्चा साधु नहीं । इसीलिए इस व्यक्ति की भिक्षा को 'पौरुषघ्नी (= पुरुषार्थ का हनन करने वाली )' यह नाम दिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004072
Book TitleAstaka Prakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorK K Dixit
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages142
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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