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है कि मोक्ष-प्राप्ति से कुछ समय पूर्व–अर्थात् अपने 'घाती कर्मों का नाश होते ही-एक व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है । आचार्य हरिभद्र का कहना है कि सर्वज्ञता एक आत्मा की स्वाभाविक अवस्था है लेकिन 'कर्म' रूपी मैल उसे अनादि काल से ढाँके हुए होता है जबकि इस मैल का नाश होते ही यह सर्वज्ञता प्रकट हो जाती है। साथ ही वे इस बात का स्पष्टीकरण आवश्यक समझते हैं कि सर्वविषयक ज्ञान आत्मा में रहते हुए ही अपने विषयों का ग्रहण करता है न कि उन विषयों के निकट पहुँच पहुँच कर । (३१) तीर्थंकर का धर्मोपदेश
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र बतलाते हैं कि धर्मोपदेश करना तीर्थंकर का एक मुख्य कार्य है तथा यह कि तीर्थंकर का यह धर्मोपदेश किन विशेषताओं से सम्पन्न होता है । इस धर्मोपदेश की सबसे बड़ी विशेषता यह बतलाई गई है कि वह एक होते हुए भी अनेक श्रोताओं को उनकी अपनी अपनी आवश्यकतानुसार सद्बुद्धि प्रदान करता है। (३२) मोक्ष
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र मोक्ष का स्वरूप वर्णन करते हैं और विशेष रूप से इस आपत्ति का निवारण करते हैं कि जब मोक्षावस्था में अन्न, पान आदि का भोग संभव नहीं तब यह अवस्था सर्वोत्कृष्ट सुख की अवस्था कैसे । आचार्य हरिभद्र का समाधान है कि मोक्षावस्था में होने वाला सुख एक विलक्षण प्रकार का सुख है तथा उसकी तुलना किसी सांसारिक सुख सेउदाहरण के लिए, अन्न, पान आदि के भोग से उत्पन्न सुख से नहीं की जा सकती ।
इन अष्टकों के आद्योपान्त अध्ययन से एक पाठक के निकट आचार्य हरिभद्र का आशय और भी स्पष्ट हो जाना चाहिए ।
___ 'अष्टक' के प्रस्तुत संस्करण में मूल संस्कृत कारिकाओं के साथ उनका हिंदी अनुवाद तथा मूल का आशय स्पष्ट करने वाली कतिपय टिप्पणियाँ भी दी जा रही हैं । अनुवाद के कोष्ठक-अन्तर्गत भागों के संबंध में ध्यान रखना
* जैन कर्म-शास्त्र की मान्यतानुसार 'कर्म' आठ प्रकार के होते हैं जिनमें से चार जो विशेष रूप से अनर्थकारी हैं 'घाती' कहलाते हैं तथा शेष चार 'अघाती' ।
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