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दिया तब यह दान महान दान कैसे (क्योंकि 'महान् दान' कहलाए जाने का अधिकारी संख्याबद्ध दान नहीं संख्यातीत दान होता है) । आचार्य हरिभद्र का समाधान है कि एक तीर्थंकर का दान संख्या वाला इसलिए नहीं की वे इससे अधिक दान दे नहीं सकते थे बल्कि इसलिए कि इससे अधिक दान की लोगों को आवश्यकता न थी । (२७) तीर्थंकर का दान निष्फल नहीं
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने इस आपत्ति का निवारण किया है कि जब एक तीर्थंकर अपने इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करने जा रहे हैं तब वे दान आदि शुभ क्रिया-कलाप क्यों करते हैं । आचार्य हरिभद्र का एक समाधान यह है कि उक्त प्रकार के शुभ क्रिया-कलाप करना एक तीर्थंकर का स्वभाव ही है और दूसरा यह कि उक्त प्रकार के शुभ क्रिया-कलाप करके एक तीर्थंकर लोक साधारण के सामने एक आदर्श उपस्थित करते हैं । (२८) राज्य का दान आदि करने पर भी तीर्थंकर दोष के भागी नहीं
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने इस आपत्ति का निवारण किया है कि जब राज्य-पालन आदि सांसारिक क्रिया-कलाप जैनों की दृष्टि में पाप का स्थल हैं तब तीर्थंकरों के संबंध में यह क्यों सुना जाता है कि उन्होंने अपने उत्तराधिकारी को राज्य सौंपा आदि । आचार्य हरिभद्र का समाधान है कि राज्यपालन आदि क्रिया-कलाप पाप के स्थल अवश्य है लेकिन वे किन्हीं और भी बड़े पापों से रक्षा का साधन भी सिद्ध होते हैं ।
(२९) सामायिक का स्वरूप
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने सिद्ध किया है कि जिस आदर्श आचरण-मार्ग का प्रतिपादन जैन धर्म-ग्रंथों में किया गया है तथा जिसका पारिभाषिक नाम 'सामायिक' है वही एक वस्तुत: आदर्श आचरण-मार्ग है। और एक बौद्ध को एक अभिलाषोक्ति को दृष्टान्त बनाकर उन्होंने यहाँ यह भी सिद्ध किया है कि बौद्ध-परंपरा द्वारा आदर्श रूप से कल्पित आचरण-मार्ग एक वस्तुतः आदर्श आचरण-मार्ग नहीं । (३०) केवल (सर्वविषयक) ज्ञान
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने इस जैन मान्यता को प्रस्तुत किया
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