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केवल (सर्वविषयक) ज्ञान
९९ और क्योंकि इसकी (अर्थात् एक आत्मा की) विशुद्धि (अर्थात् घाती 'कर्मों' से मुक्ति) ज्ञान, तप तथा सदाचरण के रहते ही होती है इसलिए तत्त्ववेत्ताओं की मान्यता है कि इसकी (अर्थात् आत्म-विशुद्धि की) प्राप्ति होने पर उसकी (अर्थात् 'केवल' ज्ञान की) प्राप्ति इस रीति से (अर्थात् घाती 'कर्मों' के नाश के फलस्वरूप) हुआ करती है ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि क्योंकि एक आत्मा की विशुद्धि का कारण ज्ञान (तप तथा सदाचरण) की उत्तरोत्तर वृद्धि है इसलिए एक सर्वथा विशुद्ध आत्मा को सर्वज्ञ होना ही चाहिए ।
स्वरूपमात्मनो ह्येतत् किन्त्वनादिमलावृतम् ।
जात्यरत्नांशुवत्तस्य क्षयात् स्यात्तदुपायतः ॥३॥
वस्तुत: 'केवल' ज्ञान आत्मा की एक स्वाभाविक अवस्था है लेकिन अनादिकालीन ('कर्म' रूपी) मैल ने उसे ढाक रखा है-उसी प्रकार जैसे एक श्रेष्ठ रत्न की किरणों को मैल अनादि काल से ढाके होता है; और समुचित उपायों की सहायता से इस मैल का नाश हो जाने के फलस्वरूप एक आत्मा में उसे (अर्थात् 'केवल' ज्ञान को) प्रकट हो जाना चाहिए ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र की समझ यह है कि एक आत्मा स्वभावतः सर्वज्ञ होती है लेकिन क्योंकि 'ज्ञानावरणीय' नाम वाला 'कर्म' उसे अनादि काल से ढाके हुए होता है इसलिए उसकी यह सर्वज्ञता तब तक प्रकट नहीं होती जबतक इस 'कर्म' विशेष का सर्वथा नाश न हो ले ।
आत्मनस्तत्स्वभावत्वाल्लोकालोकप्रकाशकम् ।
अतएव तदुत्पत्तिसमयेऽपि यथोदितम् ॥४॥
क्योंकि लोक तथा अ-लोक दोनों का स्वरूप प्रकट करना आत्मा का स्वभाव है इसलिए 'केवल' ज्ञान भी वैसा ही (अर्थात् लोक तथा अ-लोक दोनों का स्वरूप प्रकट करने वाला) हुआ करता है; और इसलिए यह 'केवल' ज्ञान अपनी उत्पत्ति के समय भी उक्त स्वभाव वाला (अर्थात् लोक तथा अलोक दोनों का स्वरूप प्रकट करने वाला) होता है ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि यदि लोक तथा अ-लोक का स्वरूप प्रकट करना 'केवल' ज्ञान का स्वभाव है तब वह अपनी उत्पत्ति के समय भी लोक तथा अ-लोक का स्वरूप प्रकट करने वाला होना चाहिए ।
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