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'पुण्य को जन्म देने वाला पुण्य' आदि
फलस्वरूप ) एक अशोभन जन्म से अशोभनतर जन्म में जाता है । गेहाद् गेहान्तरं कश्चिदशुभादितरन्नरः । याति यद्वत् सुधर्मेण तद्ववदेव भवाद् भवम् ॥४॥
जिस प्रकार कोई मनुष्य एक अशोभन घर से शोभन घर में जाता है उसी प्रकार वह शुभ धर्म के पालन से (अर्थात् पुण्य को जन्म देने वाले पाप के फलस्वरूप ) एक अशोभन जन्म से शोभन जन्म में जाता है ।
शुभानुबंध्यतः पुण्यं कर्तव्यं सर्वथा नरैः । यत्प्रभावादपातिन्यो जायन्ते सर्वसम्पदः ॥ ५ ॥
इस लिए मनुष्यों को चाहिए कि वे पुण्य कार्य को जन्म देने वाला पुण्य कार्य करें - जिस पुण्य कार्य के प्रताप से एक मनुष्य को प्राप्त होने वाली सभी सौभाग्य - सम्पत्तियाँ अविनाशी बन जाया करती है ।
सदागमविशुद्धेन क्रियते तच्च चेतसा ।
एतच्च ज्ञानवृद्धेभ्यो जायते नान्यतः क्वचित् ॥६॥
और इस प्रकार का पुण्य कार्य संभव होता है उस मन के लिए जो शोभन शास्त्र द्वारा (अथवा सदा शास्त्र द्वारा ) विशुद्ध बनाया गया है जबकि एक मन का शोभन शास्त्र द्वारा (अथवा सदा शास्त्र द्वारा ) विशुद्ध बनाया जाना ज्ञानवृद्ध (अर्थात् अपने से अधिक ज्ञान वाले) व्यक्तियों के हाथों ही संभव है अन्यथा कैसे भी नहीं ।
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चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते ।
यस्य तन्मुषितं दोषैस्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥७॥ * १
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क्लेश-मुक्त (अर्थात् राग आदि दोषों से मुक्त) चित्त रूपी रत्न को ही एक व्यक्ति का आन्तरिक धन कहा गया है और जिस व्यक्ति के इस चित्तरत्न को (राग आदि) दोषों ने चोरी कर लिया उसे विपत्तियाँ ही शेष रह गई ।
प्रकृत्या मार्गगामित्वं सदपि व्यज्यते ध्रुवम् । ज्ञानवृद्धप्रसादेन वृद्धि चाप्नोत्यनुत्तराम् ॥७॥ २
★ प्रस्तुत अष्टक की सातवीं कारिका के दो पाठ उपलब्ध होते हैं जो यहाँ क्रमशः दिए जा रहे हैं ।
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