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शास्त्र की प्रतिष्ठा गिरानेवाले आचरण की निन्दा की तपस्या की निन्दा की थी।
इति सर्वप्रयत्नेनोपघातः शासनस्य तु ।
प्रेक्षावता न कर्तव्य आत्मनो हितमिच्छता ॥७॥ २
अतः अपना हित चाहने वाले एक बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह पूरा प्रयत्न इस बात का करे कि उसके कारण शास्त्र की प्रतिष्ठा न गिरे ।
कर्तव्या चोन्नतिः सत्यां शक्ताविह नियोगतः ।
प्रधानं कारणं ह्येषा तीर्थकृन्नामकर्मणः ॥८॥ २ साथ ही, एक व्यक्ति को चाहिए कि वह शक्ति रहते अवश्य ही शास्त्र की प्रतिष्ठा को बढ़ाए-क्योंकि शास्त्र-प्रतिष्ठा का यह बढ़ाना ही तीर्थंकर नाम वाले 'नाम-कर्म' का कारण है (अर्थात् एक व्यक्ति द्वारा इस 'कर्म' के अर्जन किए जाने का कारण है जिसके फलस्वरूप यह व्यक्ति आगे चलकर तीर्थंकर होता है)।
(टिप्पणी) जैसा कि पहले कहा जा चुका है 'तीर्थंकर' एक प्रकार के शुभ 'कर्म' का नाम है जिसका अर्जन करने के फलस्वरूप एक व्यक्ति अपने अगले किसी जन्म में तीर्थंकर बनता है । 'नाम-कर्म' 'कर्म' के आठ मुख्य प्रकारों में से एक है तथा 'तीर्थंकर' नाम वाला 'कर्म' एक प्रकार का 'नाम-कर्म' है; (वैसे 'तीर्थकृन्नामकर्मणः' इस शब्द का अर्थ 'तीर्थंकर नाम वाले नाम-कर्म का' यह भी किया जा सकता है और 'तीर्थंकर नाम वाले कर्म का' यह भी) ।
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