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शास्त्र की प्रतिष्ठा गिरानेवाले आचरण की निन्दा
है कि एक आत्मा मिथ्यात्व - मोहनीय 'कर्म' से मुक्ति पाने के ठीक पहले अनन्तानुबंधी कषाय से भी मुक्ति पा चुकी होती है । इसी प्रकार यहाँ प्रशम आदि गुणों से आचार्य हरिभद्र का आशय निम्नलिखित पाँच चारित्रिक सद्गुणों से है जिनके संबंध में समझ यह है कि वे सम्यक्त्व - प्राप्ति के सूचक चिह्न : प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्तिक्य ।
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अतः सर्वप्रयत्नेन मालिन्यं शासनस्य तु ।
प्रेक्षावता न कर्तव्यं प्रधानं पापसाधनम् ॥५॥ १
अतः एक बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिए कि वह पूरा प्रयत्न इस बात का करे कि (उसके कारण ) शास्त्र की प्रतिष्ठा न गिरे, वह शास्त- प्रतिष्ठा जिसका गिरना पाप का ( अर्थात् अशुभ 'कर्म' बंधका) मुख्य कारण है ।
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अस्माच्छासनमालिन्याज्जातौ जातौ विगर्हितम् । प्रधानभावादात्मानं सदा दूरीकरोत्यलम् ||६ ॥ १
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शास्त्र - प्रतिष्ठा के इस गिराने के फलस्वरूप एक व्यक्ति जन्म जन्म में निकृष्ट गति वाले अपने को प्रभुता - प्राप्ति से सदा अत्यन्त दूर फेंके रहता है । (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र के कहने का आशय यह हुआ कि प्रस्तुत व्यक्ति बार बार निकृष्ट योनियों में जन्म पाता है तथा दीन-हीन जीवन व्यतीत करता है ।
कर्तव्या चोन्नतिः सत्यां शक्ताविह नियोगतः ।
अवन्ध्यं बीजमेषां यत् तत्त्वतः सर्वसम्पदाम् ॥७॥ १
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साथ ही एक व्यक्ति को चाहिए कि वह शक्ति रहते अवश्य ही शास्त्र की प्रतिष्ठा को बढ़ाए, क्योंकि शास्त्र - प्रतिष्ठा का यह बढ़ाना सभी सम्पत्तियों (अर्थात् सौभाग्यों) का अवन्ध्य बीज सचमुच है ।
अत उन्नतिमाप्नोति जातौ जातौ हितोदयाम् । क्षयं नयति मालिन्यं नियमात् सर्ववस्तुषु ॥८॥ १
शास्त्र - प्रतिष्ठा के इस बढ़ाने के फलस्वरूप एक व्यक्ति जन्म जन्म में उन्नत अवस्था को प्राप्त करता है— उस उन्नत अवस्था को जिसका कारण है शुभ 'कर्मों' का सतत प्रवाह — तथा वह अवश्य ही सभी जीवन - पहलुओं से संबंधित निकृष्टता को नष्ट करता है ।
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