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दमयन्तीकथाचम्पू- टीकाकार : महोपाध्याय गुणविनय
श्रमण संस्कृति के पुरोधा मुनिगण विशुद्ध जीवनचर्या का पालन करते हुए स्वाध्याय - ध्यान, पठन-पाठन और शास्त्र - संरक्षण में सर्वदा / प्रतिसमय दत्त - चित्त रहते थे और आध्यात्मिक ऊर्जा व ज्ञान की सर्वोच्च सीमा को प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहते थे । पठन-पाठन के साथ नव्य साहित्य का निर्माण भी करते थे। जैन आगम और जैन साहित्य के अतिरिक्त विशाल दृष्टि सम्पन्न होने से साहित्य की प्रत्येक विधा और शैली पर नव्य-नव्य सर्जन भी करते थे । फलतः साहित्य की कोई भी विधा उनसे अछूती न रही । न्याय - दर्शन, व्याकरण, कोष, अलंकार, काव्य, छन्द, गणित, आयुर्वेद और ज्योतिष आदि समस्त विषयों पर नूतन - सर्जन के अतिरिक्त व्याख्या ग्रन्थों का प्रणयन भी करते थे। जैनेतर साहित्य पर भी व्याख्या/ टीका के रूप में उन्होंने विपुल साहित्य का निर्माण किया। सत्रहवीं शताब्दी के धुरंधर विद्वानों में महोपाध्याय साधुकीर्ति, महोपाध्याय जयसोम, महोपाध्याय पुण्यसागर, ज्ञानविमलोपाध्याय, समयसुन्दरोपाध्याय, श्रीवल्लभोपाध्याय, गुणविनयोपाध्याय, जिनराजसूरि, साधुसुन्दर, सूरचन्द्र और ज्ञानप्रमोद आदि के नाम अग्रिम पंक्ति में रखे जा सकते हैं। इन्हीं उद्भट विद्वानों में महोपाध्याय गुणविनय एक है। दमयन्ती कथा चम्पू के विवृतिकार होने से इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर यहाँ प्रकाश डालना अभीष्ट है।
गुरु- परम्परा
टीकाकार गुणविनय गणि ने अपनी गुरु-परम्परा का परिचय देते हुए दमयन्तीकथाचम्पू टीका की प्रशस्ति में लिखा है
खरतरगच्छ में नवाङ्गी टीकाकार अभयदेवसूरि की परम्परा में श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी के पट्टधर गच्छनायक, युगप्रधान पदधारक श्री जिनचन्द्रसूरिजी विद्यमान हैं। इसी खरतरगच्छ की क्षेमशाखा में क्षेमराज उपाध्याय हुए। इनके चार शिष्य हुए - १. शिवसुन्दरोपाध्याय २. कनकतिलकोपाध्याय ३. दयातिलकोपाध्याय एवं उपाध्याय प्रमोदमाणिक्य । प्रमोदमाणिक्य के चार शिष्य हुए - १. गुणरंग, २. दयारंग, ३. जयसोमोपाध्याय और ४. क्षेमसोम । जयसोमोपाध्याय का मैं ( गुणविनय) मुख्य शिष्य हूँ ।
यही परम्परा टीकाकार ने अपने प्रणीत समग्र ग्रन्थों में दी है । उदाहरण के तौर इनकी प्रथम
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